Sunday, 13 May 2018

परफेक्ट हो..

अध्याय २३ 

हे ईश्वर 

कितनी दूर आ गयी हूँ मैं. फिर भी नहीं बदली मेरी ज़िन्दगी ज़रा भी. सब कहते हैं तुम ज़िम्मेदारी से भाग रही हो. क्या सच? क्या होती है ज़िम्मेदारी भगवान् और कौन भाग रहा है? याद आता है मुझे हर वो इन्सान जो मेरे रास्ते में तो आया पर साथ चलने के लिए नहीं. कुछ दूर साथ चलके मेरा साथ छोड़ देने वाले हर इन्सान से मैंने पूछा था 'मुझमें क्या कमी है?' सबने यही कहा कि तुम परफेक्ट हो. क्या होता है परफेक्शन भगवान्? क्या होती है सम्पूर्णता? क्या वो जब कोई ये मान लेता है कि एक रिश्ते में झूठ बोलना सच्चाई बताने से बेहतर है. या वो जब कोई आपसे सहारा मांगे और आप उसमें केवल थोड़ी देर की राहत तलाश रहे हों. या फिर वो जिसमें आप ढेर सारे वादे तो कर लेते हैं पर निभाने की शक्ति नहीं रखते. परफेक्शन के एक नहीं कई सारे रूप हैं भगवान् जो मैंने आजमाए हैं और हर बार धोखा ही खाया है. तुम्हारी परफेक्ट दुनिया के परफेक्ट लोग मेरे साथ छुपन छुपाई तो खेल सकते हैं पर सबके सामने मुझे अपना नहीं सकते. अब आप कहोगे क्यूँ बनाती हो ऐसे रिश्ते तुम? कैसे कर लेती हो विश्वास? कैसे सोच लेती हो कि सामने वाला अपने सारे वादे निभाएगा? वो इसलिए क्यूंकि भगवान मैं आप पर खुद से ज्यादा विश्वास करती हूँ. मैं इंसानियत और इन्सान की नेक नीयत पर  भरोसा करती हूँ. मुझे लगता है कि हर इन्सान एक जैसा नहीं होता. इसलिए जब लोग मेरा फायदा उठाते हैं और उसके बाद अपनी स्वार्थान्धता और कायरता को मजबूरी का नाम देते हैं तब मैं सब्र कर लेती हूँ. ये सोच लेती हूँ कि कोई तो होगा जो कायर नहीं होगा. जिसमें हिम्मत होगी मुझे अपनाने की. मैं सारी जिंदगी वो हिम्मत तलाश करती रही.

एक रिश्ते में सुरक्षित महसूस करना मेरा अधिकार है ईश्वर और मुझे सुरक्षित महसूस कराना सामने वाले का दायित्व है. खुशकिस्मती से मेरी कोई आर्थिक मजबूरी नहीं है. फिर भी मुझे मेरे रिश्ते के लिए सामाजिक स्वीकृति और खो देने के डर से मुक्ति चाहिए.

एक उंगली जब उठती है तो सिर्फ मुझ पर ही नहीं मेरे परिवार और मेरे संस्कारों पर भी. जबकि मुझे जो मेरे परिवार से मिला वो बहुतों को नहीं मिलता. मुझे सपने देखने कि आज़ादी मेरे परिवार ने ही दी है. मुझ पर और मेरे हर निर्णय पर पूरा भरोसा मेरे परिवार ने ही किया है. हिम्मत दी है, इंतज़ार किया है मेरा हर सपना पूरा होने का. सब कुछ ठीक हो जाता अगर पहले की तरह मेरी मेहनत और लगन पर सब कुछ निर्भर होता. शादी तो न जाने किस बात पर निर्भर करती है. मुझे डर लगने लगा है भगवान. अपने आप को ज़िन्दगी भर के लिए किसी को दे देने का नतीजा गलत भी तो हो सकता है. कैसे और किस पर भरोसा करूँ? सब कहते हैं अपने परिवार की खातिर ही कर लो न. पर भगवान् शादी परिवार के लिए नहीं अपना परिवार बनाने के लिए की जाती है. लोग ये बात भूल गये हैं और शादी को बायो डाटा, तस्वीरों, कुंडली और न जाने क्या क्या में उलझा दिया है. मैं शादी करना चाहती थी पर वो शादी नहीं जो लोगों को दिखाने के लिए की जाती है.पर वो जिसमें दो इन्सान जिंदगी भर हर सुख दुःख में एक दूसरे का साथ देते हैं.

मेरे ईश्वर मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, मैं और कुछ नहीं चाहती. बस एक दुआ मांगती हूँ कि मेरी भटकन को आप विराम दे दो. मुझे थोडा सा सुकून दे दो. मैं अकेले अपने रस्ते पर चल सकूँ, इतनी शक्ति दे दो और विवेक भी. मैं उन सब लोगों से दूरी बनाना चाहती हूँ जिनके पास दुनिया के सामने मुझे अपनाने की हिम्मत नहीं है. उसके बिना जीना आसान तो नहीं है पर सही रास्ता आसान कब हुआ है. इतना ही चाहती हूँ मैं मेरे भगवान कि उस की आँखों में मुझे खोने का डर हो. वो कर रहा हो कोशिशें मेरे साथ आने की. जिस तरह मैंने लोगों की भावनाओं की कद्र की है, वो मेरी कद्र करे. मेरे साथ अगर रिश्ता बनाया है तो उस रिश्ते को सुरक्षा दे दे. और अगर नहीं दे सकता तो छोड़ दे मेरा साथ. कुछ दिन का खालीपन मैं बर्दाश्त कर सकती हूँ पर एक और धोखा नहीं सह पाउंगी. मैं टूट जाउंगी भगवान्. ज़िन्दगी भर के लिए इंसानियत से विश्वास उठ जायेगा मेरा. प्लीज ऐसा मत होने दो. मेरे विश्वास की और मेरे रिश्ते की रक्षा करो भगवान्.

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