Saturday, 26 May 2018

अकारथ है...


अध्याय २८ 

हे भगवान

अपनी अस्तित्वहीनता का एहसास इतनी शिद्दत से मुझे कभी नहीं हुआ. आज ऐसा लग रहा है कि सब किया धरा एक बार फिर अकारथ हो गया. शायद शुरुआत से ही था. मैं ही विश्वास नहीं कर पा रही थी इस सच का. एक बार फिर किसी ने बीच रस्ते में मुझे छोड़ दिया. सब कुछ जानते हुए भी मुझे एक बार फिर उसी तकलीफ से गुजरने पर मजबूर कर दिया. जिसने कभी मुझसे जिंदगी भर साथ निभाने का वादा किया था मुझे नहीं पता अगले साल मैं उससे बात भी कर सकूंगी या नहीं. जिस रिश्ते को आप दोस्ती के दायरे में बांध कर रखना चाहते हैं, आपको कभी भी उस रिश्ते को अपनी हदें पार नहीं करने देना चाहिए. मैं क्यूँ हर बार एक ही गलती करती हूँ? पर सच कहूँ भगवान् गलती मेरी नहीं है. लोग अच्छी तरह जानते हैं कि गलती मेरी नहीं है. मैंने हमेशा से एक घर का सपना देखा है, एक साथी चाहा है. कुछ दिन के लिए नहीं, जिंदगी भर के लिए. जो इन्सान मुझे वो साथ नहीं दे सकता उसे मेरे करीब आने का हक ही नहीं था. मेरी स्थिति- परिस्थिति को बहाना बना कर लोग मेरे नज़दीक आते हैं. फिर एक दिन जब उन्हें लगता है कि मेरे सवालों का जवाब देना अब उनके लिए मुमकिन नहीं, वो मुझे परिवार का, मजबूरी का और सबसे बढ़कर मेरी कमियों का वास्ता देकर मुझसे दूर चले जाते हैं. अपनी कमजोरी और कायरता को नहीं मेरे तेज़ स्वभाव, निरंकुश उग्र जुबान और मेरे अतीत की गलतियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. गलत मैं नहीं हूँ भगवान्. गलत वो सारे लोग हैं जिन्होंने मेरा विश्वास तोड़ दिया. जिन्होंने अपनी एक गलत छवि मेरे सामने रखी. जिन्होंने मुझे ऐसा आभास दिया कि वो दुनिया और उसकी रवायतों से बगावत कर सकते हैं.

वही लोग आज मुझसे कहते हैं रहना तो हमें इसी समाज में है. मेरे परिवार पर तुम्हारे कारण उंगली उठेगी तो सहा नहीं जाएगा. वही लोग हैं न भगवान् जो मेरे दुःख में मुझसे ज्यादा दुखी थे. क्यूँ लगा उनको कि जिंदगी से इतना सब कुछ चाहने वाली मैं पल पल बदलने वाले रिश्ते में राहत महसूस करूंगी. आपने मुझे बहुत बहुत मज़बूत बनाया है. पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं हर बार अपनी पूरी ताक़त टूटे हुए रिश्ते से निकलने के लिए इस्तेमाल करूँ. आज से पहले मैंने खुद से बहुत नफरत की है. पर मुझे प्यार की ज़रूरत है. मुझे अपनी गलतियों के लिए अब खुद को माफ़ कर देना चाहिए और उन हादसों के लिए भी जिसमें मेरी कोई गलती नहीं थी.

मेरे साथ एक बार एक हादसा हुआ और मैंने हादसों को ही अपनी नियति मान लिया. घर घर खेलने का मेरा वो शौक अब पूरा हो गया है. मैंने अब स्वीकार कर लिया है कि तुम्हारी दुनिया का कोई भी So called मर्द मेरे लिए वो घर नहीं बना सकता. मुझे वो घर खुद बनाना होगा. मुझे अकेले ही उस घर को और अपने जीवन को संवारना होगा. मुझे ही अपनी सोच बदलनी होगी. मैं कोई खिलौना नहीं हूँ भगवान् जिससे थोड़े दिन खेलकर उसे छोड़ दिया जाए. वैसे भी मेरी जिंदगी में आने वाले किसी भी इन्सान से कभी उसे सँवारने का नहीं सोचा. जो भी मिला है बिखेर कर ही गया है. इसलिए जो रहत मैं बाहर तलाशती रही हूँ, वो मुझे खुद में खोजनी होगी. क्या हुआ जो मुझे घर आने में देर हो जाती है, मैं अपनी रक्षा के लिए हथियार लेकर चलूंगी. क्या हुआ जो लोग मेरे बारे में अनर्गल प्रलाप करते हैं, मेरा साफ़ आचरण कभी न कभी उनको आँखें झुकाने पर मजबूर कर देगा. क्या हुआ जो लोग मुझे मेरे अतीत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जो उसका हिस्सा थे सच उनको नज़र झुका कर चलने पर मजबूर कर देगा. एक बार फिर मेरे साथ धोखा हुआ तो क्या हुआ. मैं वादा करती हूँ भगवान् अब कभी तुम्हारी दुनिया के किसी इन्सान को खुद से धोखा करने नहीं दूँगी. मैं भी अब तुम्हारी दुनिया को वही दूंगी जो उसने मुझे दिया. सच ही तो कहा था उसने ‘ऐसा रिश्ता होने से अच्छा रिश्ता न हो.’ मुझे इस रिश्ते से भी अपमान के अलावा मिला ही क्या है? उसने भी मेरा इस्तेमाल ही किया.

थोडा सा दुःख हो रहा है भगवान्. ये इन्सान उन सब लोगों से कितना अलग था. ये भी मर्द जात में शामिल हो गया. आज के बाद मुझ पर उठने वाली उँगलियों में एक ऊँगली उसकी भी होगी. लेकिन अब हर एक बात की तरह उसका मुझ पर उंगली उठाना भी अकारथ है! है न?

एक बात और. वो सारे सवाल जो आप मुझसे तब पूछने वाले थे जब मेरी शादी होती वो पूछने का मौका आपको अब कभी नहीं मिलेगा. हाथ छोड़कर जाने वाले को कभी ये हक नहीं होता कि आगे बढ़ जाने वाले से कोई भी सवाल कर सके.

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