Monday, 28 May 2018

सात फेरों के सातों वचन...



अध्याय २९

हे ईश्वर

मैंने जब कभी आपकी दुनिया के बनाए रीत रिवाजों से समझौता करने की सोची है, हर बार आप खुद मेरे सामने एक आईना ला कर रख देते हो. जिसे हम इतने अरमानों से घर लाते हैं, उसे ही कितनी बेदर्दी से कह देते हैं चली जाओ. क्यूँ? अच्छा हुआ मेरी जिंदगी में ये सुकून तो है कि मुझे मेरे घर से कोई जाने को नहीं कह पायेगा कभी. मैंने सोचा था कि इस रिश्ते को यहीं ख़त्म करके मैं अब एक नई शुरुआत करुँगी. न जाने कितनी खूबसूरत यादें मेरा हाथ थामने लगीं, तब भी जी कड़ा कर लिया था. पर देखो न! उसकी ज़रूरत से आज भी मुंह नहीं फेर पाती हूँ. उसकी बेबसी मेरी आँखों में उतर आती है. फिर क्यूँ उसे मेरी उदासी का एहसास नहीं घेरता? क्यूँ जिस तरह मैं परेशान हो जाती हूँ उसकी परेशानी में, वो कभी मेरी उलझनें दूर करने कि कोशिश नहीं करता. भगवान मैंने जब भी उससे मदद की उम्मीद की है, उसकी साफ़ न ने मेरा दिल दुखा दिया. मेरी न उसे सिर्फ किसी और के पास जाने पर मजबूर कर देती है. कभी कभी लगता है कि वो बेहद स्वार्थी है. पर सच तो मैं भी नहीं जानती. उसकी मदद करके, उसका साथ देकर जो सुकून मुझे मिलता है, वो दुनिया की किसी चीज़ में नहीं. ऐसा लगता है जैसे हर कुछ की तरह वो भी मेरी एक ज़िम्मेदारी है. ये भी लगता है कि एक बार जब वो अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, फिर चाहे तो छोड़ दूंगी दुनिया की भीड़ में उसे. पर अभी उसे किसी की ज़रूरत है, मेरी ज़रूरत है. 

जिसने दुनिया की रवायतों के आगे सर झुका दिया, वो भी खुश नहीं है. और जिसने अपने दिल की सुनी वो भी दुखी ही है. और मैं? मैं एक ऐसे इन्सान के साथ हूँ जिसकी मजबूरी, जिसकी जिम्मेदारियां उसके लिए मुझसे और मेरे टूटते हुए भरोसे से ज़्यादा ज़रूरी हैं. मैं जब सोचती हूँ मैं मज़बूत बनकर अकेले जीना सीखूंगी, उसी वक़्त वो आगे आ कर मेरा रास्ता रोक लेता है. जो जिंदगी भर मेरा साथ नहीं दे सकता उसे बार बार मेरा साथ चाहने का हक किसने दिया? मैं भी चाहती हूँ जिंदगी भर का साथ, पर मांगूं किससे? कल मेरी आँखों ने जो भयानक सच देखा, उसके बाद मेरा तुम्हारे रीत रिवाजों से विश्वास ही उठ गया. तुमने सात वचन बनाये थे न, भगवान. तुम्हारी दुनिया के लोग तुम्हारे एक भी वचन की इज्ज़त नहीं करते. एक लड़की के लिए रिश्ते में बराबरी हमेशा एक सपना ही बन कर रह जाती है. उसकी हर एक शिकायत को ये कह कर झुठला दिया जाता है कि ऐसा तो होता ही रहता है, आम बात है. जब तक हम किसी भी रिश्ते में छोटी से छोटी बात को नज़रंदाज़ करने लगें तो एक दिन बड़ी से बड़ी बात भी हम पर असर करना बंद कर देती है. कैसे समझाऊँ और किसे समझाऊँ?

खैर मेरी सुनता भी कौन है? इसलिए तो तुम्हारी दुनिया छोड़ छाड़ कर मैं तुमसे बातें किया करती हूँ. पर तुमसे भी मुझे आज तक कोई जवाब नहीं मिला. मैंने आज तक कभी पूछा नहीं कि आपने ऐसा क्यूँ किया? पर आज मैं पूछना चाहती हूँ ‘क्यूँ लाते हो मेरी जिंदगी में ऐसे लोग. वो कहते हैं मैंने ऐसा ही चाहा था. पर कौन चाहता है ऐसा कि जिंदगी में हमेशा लोग आते जाते रहें.हर कोई वफादारी चाहता है, किसी का साथ चाहता है, प्यार चाहता है. धोखा, फरेब, अपनी ज़रूरतों और मतलब के लिए बनाये हुए रिश्ते, स्वार्थ और ढेर सारे इलज़ाम.... क्या मैंने यही सब कुछ चाहा था?
हर कोई ये कहता है कि मेरे साथ ऐसा क्यूँ हुआ? पर मैं ऐसा नहीं कहूंगी. आपने कुछ सोच कर ही किया होगा मेरे साथ ऐसा. पर भगवान क्या मेरा ये सीखना समझना कभी ख़त्म होगा? कितना लम्बा है ये सफ़र भगवान? कब ख़त्म होगा? तुम मुझे दूर रखो अपनी इस दुनिया से, प्लीज भगवान.   

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