अध्याय १८
मेरे ईश्वर
कल आपका दरवाज़ा मुझे पहली बार बंद मिला. ऐसा लगा
जैसे लम्बी यात्रा करके कोई कहीं आया हो और थक कर सुस्ताने के लिए कोई जगह न मिले.
आप जानते हैं आपकी इन्हीं छोटी छोटी बातो में मैं अपने सारे जवाब खोजा करती हूँ.
खैर आप चाहें तो कह सकते हैं कि तुमने दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार क्यूँ नहीं किया.
मैं भी तो कर सकती हूँ आपसे इतने सारे सवाल. पर हम दोनों ही चुप रहते हैं. वो भी
चाहे तो कर सकते हैं मुझसे सवाल पर वो तो सवाल नहीं करते भगवान सीधे इल्जाम लगाते
हैं. मैंने किसी से सिर्फ बात कर ली तो वो मेरा पक्का वाला दोस्त करार दे दिया
जाता है. वो भी वो दोस्त जिसको मैं छुप छुप कर मिलती हूँ...छुप छुप कर भगवान्? सच
में?
मुझे याद है कि एक दिन मैंने उनसे कहा था ‘कभी
कभी एक दोस्त की ज़रूरत पड़ जाती है. किसी से बात करने की इच्छा होती है. कुछ बांटने
का मन करता है. देश दुनिया के हालात, समाज की स्थिति, काम से जुड़ी बातें किसी से
कहने की इच्छा होती है. और ये इच्छा शायद हर इन्सान की होती है. उनसे कहा था तो
उन्होंने बोला था कि मैं हूँ तुम मुझसे बात किया करो. पर जब दिल से इतनी दूर कर
दिया उन्होंने तो ये मुंहबोली दोस्ती मैं कैसे निभाऊँ? बोलो न भगवान्?
आप उनको इतना तो एहसास दिला दीजिये कि इन्सान
गलतियों का पुतला होता है. ये उन्हीं के शब्द हैं. रिश्ते में बराबरी हर इन्सान का
हक़ होता है. अगर उनके गुस्से, उनकी नाराज़गी को मैंने समझने की कोशिश की, तो उन्हें
भी बड़ा दिल रखकर मुझे माफ़ कर देना चाहिए. कोई भी बुराई इन्सान का पीछा आसानी से
नहीं छोड़ती. मेरे अन्दर की कड़वाहट को सिर्फ देखते हैं वो, समझते नहीं. सतह के ऊपर
का मेरा गुस्सा नज़र आता है उनको, अन्दर की वो दुखती रग नहीं, जिस पर हाथ रखा
उन्होंने और मेरा दिल दुखा दिया. क्यूँ भगवान्? अजीब बात ये है कि मेरे अन्दर
झाँकने की उनकी काबिलियत ही मुझे उनके इतने करीब ले आई थी कि मैंने अपने सारे ज़ख्म
उनके आगे खोल कर रख दिए. आज इसी बात पर मुझे पहली बार अफ़सोस हो रहा है. इसलिए नहीं
कि उन्होंने इस बात का कुछ गलत फायदा उठाया. पर इसलिए कि जब वो जानते हैं मेरे लिए
किसी के करीब आना मुश्किल है तो दूर जाना भी तो उतना ही मुश्किल है. कल की उस
नजदीकी की इतनी आदत पड़ गई कि आज की ये दूरी खल रही है मुझे.
उस पर भी वो मुझे पूरी तरह अकेला भी नहीं छोड़
रहे. बात भी करते हैं, फिक्र भी जताते हैं. आज भी मुझसे जुड़ी हर बात की फिक्र है
उनको. उनकी ये फिक्र ही मुझे उनसे दूर नहीं होने देती. अगर ये बात साफ़ हो जाती कि
उन्होंने सच में वो दूरी बना ली है जिसका वो दावा करते हैं, तो मैं उस खालीपन के
साथ साँस लेना सीख जाती धीरे धीरे. पर वो तो मुझसे जब भी दूर होते हैं, मेरे और
नज़दीक आ जाते हैं. वो और लोगों से बिलकुल अलग हैं. इस बात का एहसास है मुझे. ‘तुम
स्वछन्द हो’ कहने वाले ने मेरी समझदारी पर भरोसा करके ही सौंपी है ये स्वछंदता
मुझे. उसे पता है मैं इस बात का कोई गलत फायदा उठाने वाली नहीं. पर पता नहीं ये
स्वछंदता भी कितनी है. अकेले ही जाना है तो कहाँ तक, बता देते वो. क्या अब हर काम
बिना उनसे सलाह लिए करूँ? चलाऊं वो ‘अपनी मर्जी’. करूँ जैसा ‘मुझे ठीक लगे’. किसी
के आगे झुकने की एक सीमा होती है भगवान्. मेरे लिए वो सीमा अब आ चुकी है. अगर मेरे
बारे में हर बात जानने वाला भी मुझे नहीं समझ पा रहा तो अब मुझे किसी को कुछ नहीं
समझाना. कहना ही नहीं कि साथ चलो. बताना ही नहीं की चल क्या रहा है.
भगवान् प्लीज हाथ जोडती हूँ. जैसे ही मेरी ज़िंदगी
में थोड़ा सा सुकून आने लगता है, पता नहीं कौन उस सुकून में आग लगाने वाली हरकतें
मुझसे करवा देता है. मुझे नहीं पता. लौटा दो मेरा वो सुकून भगवान् जो उसका चेहरा
दख कर मिलता है मुझे.
मेरे मन से ये सारे वहम निकाल दो जो मेरी खुशहाल
ज़िंदगी का रोड़ा बने हुए हैं. उसे लौटा दो भगवान्. इसी उम्मीद पर तो साँस लिए जा
रही हूँ मैं. एक दिन वो मेरी गलती को माफ़ कर देंगे. एक दिन उनका मन साफ़ होगा, समझ
आएगी उन्हें मेरे गुस्से की वजह. उस दिन वो लौट आयेंगे. ज़रूर लौट आएंगे.
No comments:
Post a Comment