अध्याय ५०
हे ईश्वर
बुराड़ी के एक परिवार की आत्महत्या
के बाद बहुत से किस्से सुनने में आ रहे हैं. भूत प्रेत से लेकर कई तरह के
अंधविश्वासों में जकड़ी ये एक ऐसी अनसुलझी गुत्थी है जिसका सही सही ब्यौरा शायद कोई
दे नहीं पाएगा. क्यूँ करते हैं लोग आत्महत्या? क्या हो जाता है जो एक इन्सान को
खुद अपनी जान लेने पर बाध्य कर देता है?
ज्यादातर देखा गया है कि दहेज़ पीड़ित
औरतें, किसी हादसे के शिकार लोग या किसी वजह से
अपनों को खोने वाले लोग आत्महत्या कर लेते हैं. अवसादग्रस्त लोग भी अपने आप
को ख़त्म करना ही बेहतर समझते हैं. लेकिन मौत का तमाशा बनाने का ये जो चलन है ये उन
मौतों से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है. आत्महत्या करने वाले को बचाने का प्रयास
करने से ज्यादा लोगों को उनकी तस्वीरें निकलना ज्यादा अहम लगने लगा है.
खैर बात अपनी ही चल रही थी. इधर कुछ
दिनों से मुझे भी ये ख्याल बहुत परेशान करते हैं. सोचती हूँ कैसा हो अगर एक दिन
मैं अचानक अपनी जान लेने के लिए नदी में कूद पडूं या किसी भारी वाहन के आगे अपनी
छोटी सी गाड़ी अड़ा दूँ. कैसा हो अगर किचेन में खाना बनाते हुए आग की लपटों में मैं
ही झुलस जाऊं. या दिन रात चलते हुए पंखे को बंद करके उससे फंदा बना कर झूल जाऊं.
दवाइयां भी तो हैं- चाहूँ तो क्या नींद की गोलियां कहीं नहीं मिल जाएँगी. या रोज़मर्रा
की चीज़ें जैसे व्हाइटनर, सिन्दूर या कीटनाशक. एक दिन तो टीवी में सेब के बीज से
ज़हर बनाने का तरीका भी देखा था.
बहुत से रस्ते हैं जो आपको तेज़ी से या
धीमे धीमे मौत की तरफ ले जा सकते हैं. अब आप सोच रहे होंगे मैं क्यूँ इतनी परेशान
हूँ. अच्छी जिंदगी है, नौकरी है, स्वतंत्रता है. बहुत कुछ है पर फिर भी कुछ कम
लगता है. लोगों ने समझाने की बहुत कोशिश की है कि मेरे पास ऐसा बहुत कुछ है और आगे
की जिंदगी बेहद अच्छी होगी. अगर माँ पापा को पता चला कि मैं ऐसा कुछ सोच रही हूँ
तो लड़कों की तस्वीरों की लाइन लगा देंगे. कहेंगे कि तुम शादी कर लो. पर जिसके पास
खुद के लिए ही शक्ति न हो वो किसी और को दे भी क्या सकता है.
तो क्या ये मेरी अंतिम रचना है?
क्या इसके बाद फिर कभी इस तरह आप लोगों से मुखातिब नहीं हो सकूंगी? क्या यही है
मेरा अंतिम पड़ाव जहाँ से आगे जाने की जगह मुझे यहीं रुक जाना बेहतर लग रहा है?
क्या इस रचना और मेरे इस ब्लॉग से जुड़े सभी लोग यही सोचेंगे कि काश उसने थोड़ा और
संयम रखा होता. या ये कि मैं कायर हूँ जो ऐसी पलायनवादी सोच रखती हूँ.
किसी गलतफहमी में मत रहिएगा. ऐसा
करना कायरता नहीं बल्कि एक किस्म की बहादुरी ही है. मैं जब ऐसा सोचती हूँ तो मुझे
मेरे छोटे से कुत्ते का ख्याल आ जाता है. कैसा लगेगा उसे अगर मैं शाम को घर न
पहुंचूं. अगर घर का ताला एक निश्चित समय पर न खुले, कोई उसे शाम की खुराक देने
वाला न हो. अगर घर पर ऐसा करूँ और वो मुझे उठाने की कोशिश करे और उसे कोई जवाब न
मिले? कहते है पशुओं को तो पहले से ही
अंदाज़ा हो जाता है घर में होने वाली मौत का. तो क्या उसे अंदाज़ा है कि मैं एक दिन
अचानक उसे अधर में छोड़ कर चली जाऊँगी. मेरे सामान का क्या होगा? शायद औने पौने दाम
में बेच दिया जाएगा. मेरी सारी डायरियां जला दी जाएँगी ताकि मेरे किस्से कहानियां
बाहर न जाने पायें. सबसे पहले कौन पहुंचेगा? पता नहीं. शायद मोहल्ले वाले..शायद
मेरी कामवाली. ज्यादातर सबसे पहले कामवाली को ही पता चलता है. फिर पुलिस आती है.
पुलिस अगर आई तो क्या मेरा बेबी उनको अन्दर आने देगा? क्या पुलिस को पता होगा कि
दरवाज़ा खुला न छोडें वरना मेरा कुत्ता भाग जाएगा. क्या होगा?
कई बार नाराज़ होकर आज जो मेरा फ़ोन
काट दिया करता है, मुझे कुछ हो गया तो क्या वो मेरे फ़ोन का इंतज़ार करेगा? क्या एक
बार भी सोचेगा उन सारे दिनों के बारे में जो उसने मेरे साथ बिताए थे. या जिस तरह
आज कहता है ‘किसी के मर जाने से जिंदगी नहीं ख़त्म हो जाती’ उसी ज़ज्बे के साथ फिर
से अपना जीवन ऐसी शुरू कर देगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं. क्या पुलिस उससे भी कोई सवाल
करेगी? या मेरे नोट के कहने से उसको छोड़ देगी. क्या मेरे घरवाले जानना चाहेंगे
मेरे मौत के पीछे का कारण. या बदनामी के डर से बंद करवा देंगे जांच पड़ताल. क्या
मेरी पोस्टमोर्टेम रिपोर्ट ईमानदार होगी या ‘एक्सीडेंटल डेथ’ का ठप्पा लगा कर दबा
दिया जाएगा ये हादसा भी. जिन लोगों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरे इस निर्णय
के लिए मुझे बाध्य किया है, क्या वो सब अपनी जिम्मेदारी स्वीकारेंगे या मुझे कमज़ोर
कहकर पल्ला झाड़ लेंगे. क्या होगा मेरी गाड़ी का जो मैंने इतने प्यार से खरीदी है. क्या
होगा उन सारे लोन का जो मैंने उठा रखे हैं. मेरे पास तो कोई ऐसी जमा पूंजी या
संपत्ति भी नहीं जिसे देकर ये लोन चुकाया जा सके.
वो कहता है ‘शादी हो या न हो, मैं
हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा.’ पर ‘किस रिश्ते से’ पूछने पर बगलें झाँकने लगता है.
उसकी जुबान लड़खड़ा जाती है जब मैं पूछती हूँ कि अपने रीत रिवाज़ और संस्कार ताक पर
रखकर क्यूँ इस बिगड़ी हुई लड़की से इतनी नजदीकियां बना लीं उसने. क्या मेरे टूटे हुए
रिश्तों से प्रेरणा लेकर? मेरी जिंदगी में जो भी लोग आये वो परले दर्जे के कायर
थे. मुझे स्वीकारने की हिम्मत नहीं थी तो मेरा ही आत्मविश्वास ढहा कर चले गए. पर
क्या सच में उठ गया है खुद से मेरा विश्वास? क्या सच में नहीं है मेरे जैसे लोगों
के लिए इस दुनिया में जगह? क्या सचमुच मैं उन लोगों का दिया इलज़ाम स्वीकारती हूँ?
शायद नहीं. इसलिए तो प्यार पर अटल विश्वास है अब भी मुझे और शायद हमेशा रहेगा.
जो लोग आत्महत्या करते हैं वो ऐसे न
जाने कितने अनसुलझे सवाल अपने पीछे छोड़ कर चले जाते हैं. पर मैं मरना नहीं चाहती.
मैं तो जीना चाहती हूँ, खुलकर. खुश रहना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ. ज़िन्दगी
में आते जाते लोगों से बेपरवाह होकर बस अपने आप के साथ प्यार करना चाहती हूँ.
आवारा कुत्तों और बेसहारा लोगों का सहारा बनना चाहती हूँ. बहुत सारे पैसे कमाना
चाहती हूँ और समाज में सम्मान भी. क्या हुआ जो कोई मेरा साथ नहीं दे सकता. मैं
वैसे भी सिर्फ और सिर्फ अपना ही हाथ थाम कर चलती हूँ हमेशा. हमेशा चल सकूंगी,
विश्वास है मुझे.