Monday, 31 December 2018

फिर वही...


अध्याय ६६ 

हे ईश्वर
एक और साल खत्म होने वाला है और मेरी किस्मत वहीं की वहीं है। सांस रोके, दम साधे अपनी मौत का इंतज़ार करता हुए मेरा प्यार एक बार फिर सोचता है अपनी गलतियों के बारे में। शायद सब कुछ नहीं बताना चाहिए था, शायद सच नहीं कहना चाहिए था, शायद अपने अतीत को छुपा लेना चाहिए था। मैं इतना तो जान गई हूँ भगवान कि गलती मेरे अतीत की ही है। मैं जब भी नई शुरुआत करना चाहती हूँ, ये रास्ते में खड़ा हो जाता है। मैं खुद भी पूरी तरह खुद को कहाँ माफ कर पाई हूँ। मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आ सकी...मैंने सिर्फ प्यार किया भगवान। जिसे भी आप मेरे जीवन में लाए, उसे किया, पूरी शिद्दत और ईमानदारी से। वही ईमानदारी सामने वाले ने क्यूँ नहीं दिखाई? जैसे मैंने किसी को अपना लिया उसकी हर अदा और आदत के साथ, किसी ने उसी तरह मुझे क्यूँ नहीं अपनाया।

मैंने आपसे बहुत सारे सवाल किए हैं, पर जवाब एक भी नहीं है। मिला ही नहीं। जब भी कोई जीवन में आता है अपने कसमों वादों के साथ, मैं आपके आगे सिर झुका कर स्वीकार कर लेती हूँ। जैसे जैसे वक़्त बीतता है, उसके सारे वादे टूटते चले जाते हैं। वो प्यार कहीं गुम हो जाता है और उसकी जगह नियति की क्रूर हंसी ले लेती है। जिसने कल मेरी आँखों में कभी आँसू न आने देने का वादा किया था, आज मुझे ज़ार ज़ार रुला रहा है। जो आज कल मेरे साथ जिंदगी भर रहने का दावा करता था, आज मेरे साथ दो कदम नहीं चलना चाहता। इंसान की फितरत हवा से भी जल्दी रुख बदल लेती है, मैं बस देखती रह जाती हूँ। क्या है आपके मन में भगवान? बताइये तो सही!!

मैंने आज किसी से मदद मांगी और उसका नतीजा भी भुगत लिया। आज साल का आखिरी दिन है पर नियति तो जैसे ठान चुकी है कि इस रिश्ते को भी आज ही अंतिम सांसें गिनवा देगी। मैं नहीं चाहती ऐसा हो... क्या करूँ कि ये सब यहीं रुक जाए? कैसे समझाऊँ उसे कि मैंने मदद मांगी थी, तक़ाज़ा नहीं किया था! क्या करूँ कि उसकी आँखों में वही फिक्र और प्यार लौटे? क्या करूँ कि आज के दिन मेरी आँखों में आँसू न आए? क्या करूँ, भगवान???

Friday, 28 December 2018

वितृष्णा


अध्याय ६५ 

हे ईश्वर

मन बहुत अशांत है आज। लगता है कहीं भी सुकून नहीं मिलेगा। आजकल लगता है औरत होकर इतना आगे बढ़ना शायद मेरे लिए उचित नहीं था। मैं आत्मनिर्भर होकर भी इस कदर पराश्रित और परावलंबी हूँ। प्रतिदान भी देती हूँ और उसे ग्रहण करने के लिए किसी की अभ्यर्थना भी करती हूँ। ये कैसे याचक है भगवान, जो याचना भी अधिकारपूर्वक करते हैं और उलाहने भी देते हैं अस्वीकार करने पर। अतीत का एक पृष्ठ बार बार खुल कर आता है। मेरा एक मित्र हुआ करता था हालांकि उस स्वार्थी और लोभी पुरुष को मित्र कहना मित्रता के मुंह पर तमाचा है। उसने मुझसे जब भी मदद मांगी, मैंने की। हंस के कहता था, कभी नहीं चुकाऊंगा तेरा उधार। सच ही उसने जब विश्वासघात किया तो उसकी ओछी निकृष्ट हरकतों के जवाब में मैं बस असीमित सी अपनी चुप में सिमट गई। बेहद चोट पहुंचाई थी उसने मुझे भगवान। ऐसे सभी कथित मित्रों का ध्यान आज आ रहा है मुझे। मैंने मदद यही सोच कर की थी कि समय कुसमय कोई ज़रूरत पड़ने पर मुझे भी वही अवलंब मिलेगा। पर आवश्यकता पड़ने पर सारे के सारे न जाने क्यूँ कन्नी काट गए। ये सोचने से क्या लाभ कि मैं फिर कभी किसी का संबल नहीं बनूँगी। मैं जानती हूँ मैं फिर फिर वही गलतियाँ दुहराऊंगी क्यूंकि मुझे आप पर विश्वास है।

क्यूँ भगवान? आपका सर्वशक्तिमान पुरुष इतना कायर और परावलंबी क्यूँ है? कितनी ही माओं को बड़े गर्व से कहते सुना है कि उसने अपने लाडलों को बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं। क्या यही उन सब के संस्कार हैं, मां कि छल, कपट, मिथ्या, घड़ियाली आंसू और हमेशा अपने संस्कारों और रीत रिवाजों की दुहाई देते रहें पर साथ ही साथ प्रेम के नाम पर छल भी करते रहें। ऐसे ही एक बार एक किसी को आड़े हाथों लिया था मैंने। बहुत बड़ी गलती की थी। हर तरफ से फटकार बरसी थी उस समय मुझ पर। उस वक़्त एहसास हुआ कि शादी के बारे में सोच कर भी मैंने कितनी बड़ी गलती की। मेरे भाग्य में सुहाग के चिन्ह नहीं हैं। कभी होंगे भी नहीं क्यूंकि मेरे जीवन में आने वाले हर पुरुष के पास मुझे देने ले लिए सिर्फ उलाहना ही है, और कुछ भी नहीं।

Tuesday, 25 December 2018

चरित्रहीन


 अध्याय ६४ 

मेरे भगवान!!

कल जो हुआ उसे बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है । एक दोस्त से साझा की गई बातों का ये मतलब निकाला जाएगा ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। अब समझ में आया है कि लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालना किस कदर आसान है। कुछ काम नहीं आता ऐसे वक़्त पर। आपकी शिक्षा दीक्षा, आपके संस्कार, आपकी वफादारी और आपका प्यार - सब भूल जाते हैं लोग जब उनके मन में शक का कीड़ा कुलबुलाता है। कहने से क्या फायदा कि मेरे मन में ऐसा कोई ख्याल नहीं और मैंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। मन तो इतना दहल गया था कि बचपन से आज तक के अपने हर दोस्त का मन ही मन आकलन कर लिया। राहत की सांस ली ये सोच कर कि तकरीबन सारे विवाहित हैं और उनमें से कोई भी अब संपर्क में नहीं है। जिसके लिए ये बात उन्होंने बोली वो भी तो न सिर्फ विवाहित बल्कि दो प्यारे बच्चों के पिता भी हैं। जब बिना कुछ किए मेरा ये हाल है तो उन लड़कियों का क्या होता होगा जो सचमुच दो नावों की सवारी किया करती हैं।

ख़ैर उन्होंने अपने शब्दों के लिए क्षमा मांग ली और मैंने उनको माफ भी कर दिया। पर मेरा मन अभी भी अशांत है। क्या मैं भी उन हजारों स्त्रियों की तरह अपना हर शौक भूल जाऊँगी, दोस्तों और समाज से किनारा कर लूँगी, पर- पुरुष को भैया कहना शुरू कर दूँगी और अपने मन की मन में दबाना सीख जाऊँगी? फिर मेरे सपने का क्या होगा? मंटो, शिवानी, अमृता प्रीतम जैसों की तरह महान तो नहीं पर छोटी सी  रचनाकार बनने की इच्छा है न मेरी! क्या वो सपना मैं मार दूँ?

प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या की याद आ गई। दूसरी औरत असल में क्या होती है इसका जितना सटीक और मार्मिक चित्रण उन्होंने किया शायद मैंने कहीं और कभी नहीं पढ़ा। अपनी स्थिति की मन ही मन उनसे तुलना करने से खुद को नहीं रोक पाई मैं। किस तरह अपना समय, श्रम, पैसा, प्यार और सर्वस्व देकर भी एक पुरुष का विश्वास नहीं जीत सकी थीं वो। ईश्वर, औरत हमेशा क्यूँ हार जाती है? कभी सीता हार गईं थीं और आज मैं... मुझे जीतना है ईश्वर। अपने हर गुण, अवगुण और सहज आचरण के साथ उनका विश्वास जीतना है। मेरी मदद करो न, प्लीज।

Saturday, 22 December 2018

अर्द्ध पुरूष

अध्याय 63 
हे ईश्वर
कहने को आपकी दुनिया में आदमी सर्वशक्तिमान है। पर मेरी दुनिया में आपने चुन चुन कर सबसे दीन हीन, कमजोर और निरीह प्राणी भेजे हैं। समाज कहता है कि औरत वो बेल है जो आदमी रूपी वृक्ष के बिना फल फूल नहीं सकती। पर आप साक्षी हैं....पति, पिता भाई जिस भी रूप में पुरुष मेरे जीवन में हैं, सब आधे अधूरे ही हैं। कुछ भी करने में खुद को असमर्थ पाते हैं, बेचारगी जताते हैं। कितना अजीब हिसाब किताब है मेरी दुनिया का ईश्वर, आपकी दुनिया से बिलकुल उलट। कहाँ है वो पुरुष जो रक्षा करता है? यहाँ तो मेरी छवि बिगाड़ने के लिए मेरे जनक का एक जहरबुझा वाक्य ही बहुत है। मुझे वो सारे कापुरूष बहुत याद आते हैं आजकल जिनको पीछे छोड़ कर मैं बहुत पहले ही आगे बढ़ चुकी हूँ। मेरी जिंदगी और मैं ऐसी क्यूँ हूँ? फिर लोग कहते हैं, तुम चाहती हो कि कोई तुम्हारे साथ न हो। क्यूँ चाहूंगी ईश्वर? ऐसा क्या सुखद बदलाव आ जाता है मेरे जीवन में किसी के होने से? मेरी आत्मा और शरीर निचोड़ कर भी बदले में मुझसे घृणा ही तो करता है आपका भेजा हुआ हर पुरुष।मेरी कमियाँ गिनाते समय किस कदर सुकून उभर आता है उसकी आँखों में। फिर भी मेरा विश्वास नहीं टूटा। मैंने तब भी पकड़े रखी अपनी ‘मुझमें अच्छाई बाकी है’ की हठ। वैसे सच कहूँ...!!
मुझे तो ऐसा लगता है आपने पुरुष बनाने ही बंद कर दिए अब। जितने हैं सब अर्द्धपुरुष। याद आता है कैसे मैं किसी को उसके घर सुरक्षित पहुंचा कर ही घर जाती थी। कैसे रात के चौथे पहर में घर आने पर भी सड़क पार रहने वाला मेरी रक्षा के लिए कुछ सीढ़ियाँ भी नहीं उतर पाता था। किस तरह किसी खास मौके पर या तो खुद ही सारा सरंज़ाम करती थी ये फिर बस सब्र कर लिया करती थी। मैंने बस इतनी सी उम्मीद की थी किसी से कि मेरा इतना इंतज़ार किया था तो कद्र भी कर लेता थोड़ी। पर नहीं, ऐसा हुआ नहीं। आपकी दुनिया ने मुझे जितना निराश किया उतनी ही खुद को खुश रखने की मेरी आदत बन गई। आज मेरी ज़िंदगी में कोई भी रहे या जाए, मैं बिखर तो जाती हूँ पर खुद को समेट भी लेती हूं। मेरी हार मुझे फिर चलने का हौसला दे देती है। दर्द में जीना मेरी आदत सी बन गई है। मुझे डर लगता है आने वाले कल से क्योंकि वो मेरी सारी खुशियां और अरमान कुचल कर किसी और को देने वाला है। उस दिन का इंतज़ार भी है और उसी दिन की दस्तक से दहशत भी होती है। इंतज़ार है ताकि मैं एक बार फिर ठोकर खाकर गिरूं और ज़ख्म भरने का इंतज़ार करूँ। एक बात बताइए न..ऐसा क्यों नहीं होता कि मेरा विश्वास पूरी तरह उठ जाए। हर बार एक ही सपना और एक सी निराशा। कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि पूरी हो जाए मेरी उम्मीद। पर वो भी अब एक दूर की कौड़ी लगती है। शायद यही मेरी नियति है कि मेरी ज़िंदगी में आने वाले मेरा विश्वास तोड़ते जाएं और मैं  विश्वास करती जाऊं। यही आपकी इच्छा है क्या??

Wednesday, 19 December 2018

कोई और है....


अध्याय ६२ 
हे ईश्वर 

किसी का हाथ अब मेरे हाथों में है या नहींक्या उसका साथ छूट गया हैक्या खो दिया है हमने हमारा प्यारक्या अब मेरा उस पर कोई अधिकार नहींक्या वो बदल गया या बदल जाएगाक्या सच में लोग जो कहते हैं वही सच हैमैं अपनी जिंदगी बर्बाद किए जा रही हूँ खुद अपने हाथों से। जो भी छूती हूँबिखर जाता है। जो रिश्ता बनाती हूँ टूट जाता है। कोई मेरे साथ रहना नहीं चाहता या मैं खुद ही लोगों को मजबूर कर देती हूँ खुद से दूर जाने पर। कौन देगा इसका जवाब

मैंने आज फिर उन पर झूठेबेबुनियाद और बेहद कड़वे इल्ज़ाम लगाए। शायद अब वो मुझसे नफरत करते होंगे। मैं ऐसा क्यूँ चाहती हूँ भगवान कि जिसे भी मैं प्यार करती हूँ वो मुझसे कोसों दूर चला जाए और वहीं रहे। पर दूर जाने का फैसला मेरा तो नहीं था। अपने परिवार की पसंद पर मुहर लगाने का निर्णय उनका था। अगर मुझमें इस तरह उनको किसी और का होता देखने की शक्ति नहीं है तो क्या करूँमैं पहले ही बेहद दर्द में हूँ अब अगर ये सब अपनी आँखों से देखूँगी तो सांस तक लेना दूभर हो जाएगा। पहले भी हुआ था ऐसा दर्द मुझेउस बात को दिन ही कितने हुए हैं

फिर भी आज मैं उसी जगह आके फिर क्यूँ खड़ी हो गई? खुद से किए सारे वादे भूल गई थी मैं उनके प्यार के लिए। क्या क्या तो सोचा था। अब मैं खुद को वो प्यार दूँगी जो किसी ने मुझे कभी नहीं दिया। अपने आप के साथ रहूँगी, अपनी खुशी खुद में ढूंढ लूँगी और अपने लिए उसी प्यार और ध्यान की उम्मीद करूंगी जैसे मैं दूसरों का रखती हूँ। वही मैं किसी के लिए अपनी जिंदगी तक खत्म करने का सोचने लगी हूँ। मैं कब से इतनी कमजोर हो गई? जहां उसने मुझे रिश्ता और आदत में से कोई एक चुनने को कहा था, वहाँ मैंने अपना रिश्ता चुन लिया। आदत छोड़ क्यूँ दी? जब एक दिन वो मुझे मेरी इसी आदत के साथ छोड़ देने का इरादा करके आया था।

उनका कहना है मेरी आदतों के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। पर उसने भी तो मुझे बदल कर ही प्यार किया। मैं जैसी हूँ मुझे वैसे ही स्वीकार किसने किया ही है आज तक? फिर मैं क्यूँ किसी की चेहरे की मुस्कान के लिए अपनी सारी खुशियाँ वार देती हूँ? किसी की आँखों के आँसू पोंछने के लिए मैंने अपनी रातों की नींद हराम कर ली है। मन डूब सा जाता है जब मैं घर पर बात कर रही होती हूँ और वो कहते हैं किसी यार का फोन होगा। अजीब लगता है जब कहीं भी आने जाने की और देर तक बाहर रहने कि कैफियत देती हूँ। जब दफ्तर के सारे जलसे छोड़ कर मैं सिर्फ इसलिए घर आ जाती हूँ क्यूंकि मेरा देर रात बाहर रहना उनकी फिक्र की वजह है। मुझे उनकी फिक्र पर प्यार आता है, पर उनके शक पर गुस्सा। मैं उनके साथ एक रिश्ते में हूँ, अपनी खुशी से। फिर भी जब वो कहते हैं मेरी तरफ से आज़ाद हो तुम तो किसी बंधन में रहने को मन तरस के रह जाता है। इस आज़ादी से लाख दर्जे अच्छी तो उनके नियम कायदों की बेड़ियाँ हैं। उनमें कम से कम मेरे लिए उनका प्यार और फिक्र तो झलकती है। वो स्वतन्त्रता दूसरी ही होती है जिसमें लोग किसी को खुला छोड़ देते हैं कि वापस आए तो उनका है। ये तो कुछ और है। एक थोपी गई उड़ान कि अब तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ बाकी नहीं बचा...मैं क्या करूँ?

ये इंसान जिसे मैं इतना प्यार करती हूँ। खुद अकेला होकर भी उसे मेरे अकेलेपन का एहसास ही नहीं। किसी ने एक बार उसके प्यार का अपमान किया था जिसकी टीस आज भी है। फिर कैसे वो भी उसी तरह का दर्द मुझे देने पर उतर आया है। उसका कहना है कि तुम खुद काफी हो खुद को नष्ट करने के लिए। सच तो है... ऐसे ही तो मायापंछी (phoenix) में खुद को नहीं देखती न मैं! खुद को जला केपूरी तरह खत्म करके ही मुझे चैन आता है। अब वक़्त आ गया है एक बार फिर से खुद को खत्म करने का। अब मैं रख के करूंगी भी क्या

कुछ वैसे ही जैसे कोई गुनाह का रास्ता छोड़ कर नेकी के रास्ते पर चलना चाहे लेकिन समाज उसे बार बार उसी दलदल में धकेल दे। मुझे भी अब लगने लगा है कि ये दलदल ही मेरा घर हैमुझे इसे छोड़ कर जाना ही नहीं चाहिए। 

Monday, 17 December 2018

परित्यक्ता


अध्याय ६१

हे माँ

एक छोड़ी हुई औरत का भविष्य कितना अंधकारमय होता है न! मुझे न जाने क्यूँ आज इस बात का एहसास हुआ। मेरी एक ज़िद आज मुझ पर बेहद भारी पड़ गई। वो इतने नाराज़ हो गए। वो हमेशा नाराज़ क्यूँ हो जाते हैं भगवान

क्या मैं वैसी ही हूँ जैसा लोग कहते हैं? या मैं अपनी जगह सही हूँ? कुछ समझ नहीं आता। क्या कल सब कुछ ठीक हो जाएगा? या कल भी उनका वही लहज़ा और वही बातें होंगी। मन बहुत विचलित सा है। ईश्वर प्यार जब आता है तो हमें एहसास क्यूँ नहीं होता कि इस प्यार और ध्यान की उम्र सीमित है। ये जो एक्स्पायरी डेट वाला प्यार आप बार बार मेरी जिंदगी में भेज देते हो, ऐसा प्यार मुझे बेहद तकलीफ पहुंचाता है। ये दो दिन मैंने जैसे बिताए आप तो जानते होंगे। कभी कभी मन करता है मैं वही करूँ जो मेरा दिल कहता है। पर ऐसा करना आसान नहीं है।

पता नहीं मैं क्यूँ विश्वास कर लेती हूँ हर बार। वो दूसरों से अलग है पर उसकी बातें वहीं हैं जो उन लोगों ने की थीं। गुस्से में कुछ भी बोलने वाले को पता भी है कि वो बोल क्या रहे हैं!! मेरी शादी, वो सारे लोग जो उनसे पहले आए थे, मेरी ज़िद और मेरा निरंकुश व्यवहार, कुछ भी तो नहीं छोड़ा। मज़े  की बात तो ये है कि उनके शब्द और उनके लहजे में वही सारी बातें थीं जो किसी और ने भी कहीं और इसी लहजे में कहीं। किस बूते वो कहते हैं कि वो दूसरों से अलग हैं!!

सब कुछ ऐसे ही तो शुरू होता है। प्यार से बात करना, ख्याल रखना, छोटी से छोटी बातें याद रखना और फिर... एक दिन वो सब भूल कर लोग मुझे दर्द पहुँचाने में लग जाते हैं। मेरा मन अजीब सा हो रहा है। मन करता है कि सब कुछ छोड़ कर मैं कहीं चली जाऊँ। पर अपने आप से भाग कर जाऊँगी भी कहाँ? गलती मेरी ही तो है। मुझे ही बहुत भरोसा है, खुद पर। बस इतना और...कि मेरा ये विश्वास बनाए रखिएगा। बाकी सब तो मैं देख लूँगी!

Friday, 14 December 2018

अधूरी अलविदा II

अध्याय ६० 
हे ईश्वर

माफी मांगती हूँ आपसे आज! मैंने आपकी दुनिया से प्यार, दोस्ती, ईमानदारी जैसी न जाने कितनी बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। आज मेरी वो सारी उम्मीदें टूटती नज़र आ रही हैं। सच कहूँ तो मैं भी बहुत टूट गई हूँ। लेकिन मैं आपकी इस दुनिया को खुद पर हंसने का मौका कभी नहीं दूँगी। मैं किसी के सामने कभी नहीं बिखरूंगी। 

मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस इंसान को मैंने इतना प्यार दिया वो मुझसे इतनी नफरत कर सकता है। उसने न सिर्फ मुझे चोट पहुंचाई बल्कि आज मेरे साथ इतना अपमानजनक व्यवहार करके मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं क्यूँ इस इंसान के साथ हूँ? क्या मजबूरी या कमजोरी है मेरी? एक आत्मनिर्भर, सशक्त और आत्मविश्वासी इंसान होकर भी मैं किसलिए ये अपमान सह रही हूँ? क्या प्यार का मतलब हर तरह का अपमान बिना किसी शिकायत के सुन लेना होता है? क्या प्यार और आत्मसम्मान में से प्यार को चुन कर मैंने कोई गलती की है? क्या सच में मुझे इस इंसान से भी दूर जाना पड़ेगा? क्या इसके लिए भी बंद हो गए हैं मेरे मन के दरवाजे? क्या जिंदगी में कभी मुझे पीछे पलट कर देखने का मन नहीं करेगा? कल उसने गलती की थी और आज माफी मांग ली। उसकी माफी में शिद्दत और अपनापन दोनों था। पर जब मैंने सोचने के लिए वक़्त मांगा वो अपने उसी रौ में आकर बोल पड़ा ' जैसी तुम्हारी इच्छा।' क्या है मेरी इच्छा भगवान? आज तक किसने रखा है मेरी इच्छा का मान!

अजीब है न ये बात ईश्वर! लोगों की नज़रों में मैंने अपना पूरा जीवन अपनी इच्छानुसार जिया है पर जहां से मैं देखती हूँ मुझे मेरे जीवन पर किसी और की इच्छा और अधिकार ही नज़र आता है। जब मैं अपने जीवन में विवाह के बारे में गंभीर थी उस वक़्त मेरा कैरियर अहम लग रहा था। आज जब मैं अपने कैरियर में नई उचाइयाँ छूना चाहती हूँ, अपना समय और ध्यान इसकी तरफ लगाना चाहती हूँ तब लोगों को मेरे अंधकारमय भविष्य की चिंता हो रही है। मेरे लिए वो सब कुछ चाहते हैं प्यार भी, परिवार भी, पद प्रतिष्ठा और मान सम्मान भी। 

अपने मन की मन में रखने वालों को पता भी है वो किस कदर सामने वाले को गुमराह करते रहते हैं। मैं उनके साथ रहना चाहती हूँ पर समाज और परिवार की सहमति वो मुझे दिला नहीं सकते न दिलाने की हिम्मत रखते हैं। देखा जाए तो इस रिश्ते में सिवाय अंतहीन समझौते के मेरे लिए है भी क्या? हाँ ये सच है कि मैं उनसे बेहद प्यार करती हूँ और उनकी हर खुशी और दुख में उनके साथ खड़े रहना चाहती हूँ। पर ये इंसान कभी तो अपने प्यार और परवाह से मुझे आकर्षित करता है और कभी ये निकृष्ट से शब्द मेरे लिए बोल कर मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैंने हमेशा दूसरों का भला ही सोचा है, भला ही चाहा है। वो जीवन के एक दोराहे पर हैं। इस वक़्त मेरा हाथ खींच लेना उन्हें भटका सकता है। मैं नहीं चाहती कि इस वक़्त उनका ध्यान ज़रा सा भी अपने लक्ष्य से भटके। पर उनके साथ रहने का मतलब समय समय पर ये अपमान और उनके जहरबुझे शब्द बर्दाश्त करना। कभी मेरी परवरिश, कभी मेरा व्यवहार, कभी मेरे संस्कार पर उनका उंगली उठाना। 

मैं जानती हूँ कि गुस्से में वाणी पर कोई वश नहीं चलता पर मुंह से निकली बात वापस भी तो नहीं आती। मुझे बेहद चोट पहुंचती है जब मेरे निजी जीवन या अकेलेपन पर वो कोई अपमानजनक बात कह देते हैं। या जब हमारे निजी पलों और यादों को वो किसी और ही रूप में मेरे सामने रख देते हैं। मैं स्वार्थी नहीं हूँ, चलता पुर्जा नहीं हूँ, बेईमान तो बिलकुल नहीं हूँ और वासना का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं। हाँ अपने जीवन में अपने लिए मुझे जो बेहतर लगा मैंने किया। मेरे संस्कारों के अलावा भी मेरा अपना एक व्यक्तित्व है, सोच है। उसके लिए किसी से शर्मिंदा होने की मुझे कोई भी आवश्यकता नहीं। 

माफी मांगती हूँ फिर एक बार। उनको प्यार, सम्मान और अपनापन देकर भी न तो उनके जीवन और न ही उनकी अच्छी यादों में मेरे लिए कोई जगह है। फिर भी मैं आपके समाज की रवायतों के आगे सर झुकाने को तैयार नहीं। मैं उसी राह चलूँगी जो मैंने खुद चुनी है। 

Thursday, 6 December 2018

उसने कहा है....

अध्याय ५९
....हे ईश्वर

फिर से वहीं ला के खड़ा कर दिया है आपने मुझे जहां से कुछ भी साफ नज़र नहीं आता। मेरा प्यार कम पड़ गया , मेरा विश्वास टूट गया। मैं खुद भी बिखरती जा रही हूँ। कुछ सोचने समझने की शक्ति ही खत्म हो गई है। जहां देखो वहाँ रिश्तों के नाम पर सौदे ही सौदे नज़र आ रहे हैं। एक सौदा मैंने भी आज किया। मैं एक बच्चा चाहती हूँ, पर उस बच्चे को पाने के लिए मुझे नरक से गुजरना पड़ेगा। दोहरी जिंदगी जीनी पड़ेगी। मन में कुछ और रखकर होठों से कुछ और कहना पड़ेगा। वो सब करना पड़ेगा जो करने के बारे में मैं सपने में भी सोच नहीं सकती थी। मेरी जिंदगी ऐसी क्यूँ है भगवान? क्यूँ कोई ऐसा इंसान नहीं आता जो मुझे स्वीकार कर ले, जैसे मैं हूँ वैसे ही अपना ले। सबके सामने मेरा हाथ पकड़ ले। 

पर नहीं। मेरी जिंदगी में रिश्तों के लिए जगह ही कहाँ है? जहां देखो वहाँ सौदे ही सौदे हैं। किसी ने एक बार फिर मुझसे वादा किया है, ज़ुबान दी है। मैं भी अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ कहाँ है मेरे सब्र और उसकी ज़्यादतियों की हद। गलती मेरी है, मेरी ही है। मैं अपनी सही कीमत लगाना ही नहीं जानती। मैं दूसरों की तरह शर्तें रखना भी नहीं जानती। मैं और लोगों की तरह प्यार का तमाशा बनाना भी नहीं जानती। मैं कुछ भी तो नहीं जानती।

मैंने दूसरों का सहारा बनने की कोशिश की। दूसरों के लिए जीने की कोशिश की। अकेले अपना मुकाम भी पा लिया। पर आज भी मुझे एक इंसान की नज़रों में अपनी अहमियत देखने का इंतज़ार है, पता नहीं क्यूँ? मैंने किसी से बेहद प्यार भी किया। पर मेरा प्यार बार बार आपके समाज की रवायतों के आगे सर झुका देता है। मैं क्या करूँ? क्यूँ आते हैं मेरी जिंदगी में ऐसे लोग? कितने लोभ रहते हैं उनको। सब कुछ चाहिए उन्हें। प्यार भी, परिवार भी।  परिवार की इच्छा के आगे सिर झुकना उसकी मजबूरी है पर मेरी तो कोई मजबूरी नहीं। उनका कहना है तुम्हारी कुंडली में लिखा है तुम्हारी शादी का हाल। मन का हाल बताने वाली कोई कुंडली क्यूँ नहीं होती? क्यूँ कोई कुंडली उन्हें नहीं बताती कि मैं क्या महसूस कर रही हूँ?

ईश्वर मेरी सिर्फ एक प्रार्थना सुन लो। अगर तुम हो तो सुन लो! एक बार...सिर्फ एक बार इन सब रवायतों का सर झुका दो। मुझे एक बार अपनी कुंडली को मात देने की इजाज़त दे दो। आपने मेरी हर इच्छा पूरी की है। ये एक और मान लो। मैं जिंदगी भर अकेली रहना चाहती हूँ, भीड़ से दूर। मेरी जिंदगी में कोई ऐसा रिश्ता न भेजना जिसमें मेरी स्वीकृति न हो। मैं किसी झूठ के साथ अपना जीवन नहीं गुज़ारना चाहती, मेरे ईश्वर।


Tuesday, 20 November 2018

हारे हुए लोग

अध्याय ५८

हे ईश्वर

सच के लिए लड़ना कितना मुश्किल है न? बार बार मुंह की खानी पड़ती है, अपमानित होना पड़ता है। लोगों के सामने बेशर्म बनकर उनसे अपनी दुस्साहसी आंखें मिलनी पड़ती हैं। एक सच प्यार है और एक ईमानदारी ।पर आज दोनों ही हारते दिख रहे आपकी दुनिया में। कोई नहीं है मेरा भगवान, आपके सिवा। क्यों कहूँ कि वो प्यार मेरा है जो फ़र्ज़ की बलिवेदी पर मेरे सपने कुर्बान कर चुका है। क्यों कहूं कि वो समाज मेरा है जो मुझे जीने और प्यार करने का हक़ देने को तैयार नहीं। क्यों कहूँ कि वो सहकर्मी और वरिष्ठ मेरे हैं जो मेरी दिन रात की मेहनत को अनदेखा करके किसी और को उसका श्रेय ही नहीं देते बल्कि मुझे कुछ इस कदर अपमानित करते हैं कि अपनी मेहनत से मुझे नफरत हो गई है। आजीविका तो भगवान मैं कैसे भी कमा लूंगी पर जो इज़्ज़त और सम्मान मेरा हक है, वो न मिले तो क्या करूँगी? मैं इतना अपमान सहन नहीं कर सकती। ये मेरी एकमात्र कमज़ोरी है।

आज यदि मैं अपने हक़ और सम्मान के लिए न लड़ सकूँ, खुद की दांव पर लगी हुई प्रतिष्ठा की रक्षा न कर सकूं,  तो कल कैसे किसी और के हक़ की रक्षा का दावा कर सकूंगी? मैं हारती जा रही हूं भगवान। मुझे आपकी दुनिया में रहना ही नहीं आया। मैंने तो सोचा था कि प्यार, सच्चाई, ईमानदारी और श्रद्धा के साथ मैं ज़िन्दगी की हर बाज़ी जीतूंगी। पर चापलूसी और कपट के मायाजाल ने हर बार मुझे हरा दिया। मेरी हर ईमानदार कोशिश इनकी साज़िशों से हार गई। अब और लड़ने की मेरी क्षमता नहीं है। तो क्या मान लूँ की आपकी दुनिया में प्यार, सच्चाई  श्रद्धा और ईमानदारी के लिए कोई जगह नहीं? क्या सोच लूँ कि मेरी जिंदगी में वो इंसान आयेगा ही नहीं जो समाज और परिवार के सामने मेरा हाथ थामने का साहस रखता  हो? सोच लूँ कि अब मेरा रास्ता वो अंधेरी सुरंग है जिसके किसी छोर पर रोशनी नहीं है। ये इंसान जिसे आपने भेजा था स्वार्थी और बेरहम लोगों से मेरी रक्षा करने के लिए, वो खुद इतना स्वार्थी क्यूँ हो गया है? क्यूँ बेरहमी के साथ मेरे सारे सपने, सारे अरमान पाँव के तले कुचलता जा रहा है? 

हँसते हैं सब मुझ पर और आप मौन हैं! मैं जब भी अपने दुख दर्द उनसे कहती हूँ, वो मुझे delusional कह कर चुप करा देते हैं। वर्तमान में जियो, भविष्य की परवाह मत करो! जो है उसी में खुश रहो, ज्यादा की उम्मीद मत करो। ज्यादा सवाल करने पर 'ढूंढ लो न कोई और' या फिर ये कि 'मैं कभी तुम्हारे इतना नजदीक आना नहीं चाहता था। ये सब तुमने अपनी इच्छा से किया।' सच है कि आत्मघात की इच्छा मुझे हुई जरूर पर मेरी गर्दन पर  छुरी चलाने वाले हाथ मेरे नहीं थे भगवान! मैंने हमेशा की तरह इंसानियत और वफादारी की उम्मीद की थी। जिससे उम्मीद की थी वो इस लायक भी था। पर सच भगवान, मैं भूल गई कि आपकी दुनिया में किसी की प्रेयसी बनने की जो योग्यता होती है वो आपको किसी की जीवनसंगिनी बनने से रोक भी देती है। एक निश्चित समय और बिल्ले के साथ पैदा होना मेरे अंदर के सारे गुणों पर भारी पड़ गया। मैं वो इंसान हूँ ही नहीं जिसके साथ कोई जिंदगी बिताना चाहे। मैं तो वो हूँ कि जब थक जाए तो थोड़ी देर आराम कर ले या बोर हो तो मनोरंजन। अपने बारे में न जाने कैसे कैसे विचार आने लगे हैं आजकल। अपनी हर अच्छाई को भूल कर एक बार फिर उसी बुराई में सर से पाँव तक डूब जाने को दिल करता है, जिसके लिए मैं बदनाम हूँ।

मैं क्या करूँ भगवान? तुम्हारी दुनिया मुझे जीने नहीं देती और किसी का अटूट विश्वास मुझे मरने नहीं देता। 


Thursday, 1 November 2018

भगोड़े



अध्याय ५७

हे ईश्वर
क्या चीज बनाई है आपने इंसान। पर आपकी दुनिया में अब बसते कहाँ हैं वो? अब तो मर्द-औरत, हिन्दू-मुस्लिम, उंच जात-नीच जात...और भी ऐसी कई प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली। कल मैं जिसको मिली थी वो इन सब में पता नहीं किस प्रजाति का था। सबके सामने बात तक नहीं कर सकते और अकेले में प्यार के लंबे लंबे दावे! मैं इस सब से अब थक सी गई हूँ। इसलिए कल मैंने उससे कहा मुझे 6 महीने के लिए अकेला छोड़ दो। वो हमेशा कहा करता था मुझे कि मुझे कुछ दिन अकेला छोड़ दो और मैं छोड़ भी देती थी। आज मैंने उससे ये मांग लिया। डर लग रहा है पर कुछ हिम्मत तो करनी होगी। जिस इंसान की सबके सामने मुझे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं, उसके लिए मैं क्यूँ दिन रात परेशान रहा करती हूँ। मैंने भी सोच लिया है की मुझे थोड़ा तो कठोर होना ही होगा। लेकिन मेरी सारी कठोरता धरी की धरी रह जाती है। वो ज़रा सा मुझसे दूर होता है और मैं मोम की तरह पिघल जाती हूँ। 

वो एक ज़िम्मेदार, समझदार और दुनियादार इंसान है। फिर भी मैं उसकी इतनी फिक्र क्यूँ करती हूँ? क्या होगा अगर मैं न रहूँ उसके साथ? वैसे भी ये साथ है भी कितने दिनों का! यही सब सोचती हूँ और ये भी कि इतनी स्वार्थी दुनिया में अगर उसके पास उसकी फिक्र करने वाला कोई न रहे तो क्या होगा? मेरे ईश्वर, आपको तो सारी चीज़ें पता रहती हैं फिर भी क्यूँ बनाते हो ऐसे रिश्ते? एकतरफा न होकर भी एकतरफा प्यार, आधे अधूरे रिश्ते? एक ही ट्रेन में सामने की सीट पर बैठे अजनबी मगर अपने लोग। फिर ये इल्ज़ाम कि आखिर किया ही क्या है तुमने? करती ही क्या हो? सच है। एक आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी स्त्री को खत्म करने का और क्या तरीका हो सकता है? उसकी उपलब्धियां, उसके संघर्ष उसके सारे सच सिर्फ इसलिए नगण्य हैं क्यूंकि वह एक स्त्री है। उसकी नाराजगी पागलपन है, उसका गुस्सा उन्माद है और उसका दुख कोई इतनी भी बड़ी बात नहीं। उसके लिए बड़े सीमित विकल्प होते हैं। बच्चा गोद लेना, समाज सेवा में खुद को झोंक देना या फिर दूर देश कहीं एक ऐसी जगह रहना जहां उसे कोई न जानता हो।

आपने मुझे न कायर बनाया न दुनियादार। इसलिए ये दुस्साहसी लड़की तो सारे रस्मों रिवाज धता बता कर समाज की आँखों में अवज्ञा की मिर्च झोंक कर बस चलती जा रही है। कोई फर्क ही नहीं पड़ता कितने भी संघर्ष हों, रुकावटें हों दुख तकलीफ हो। मैंने कभी परवाह ही नहीं की। बस मेरे अपनों की नज़रों में जो तिरस्कार नज़र आता है वही है मेरे पैर की बेड़ी। वो भी कभी कभी कटी हुई सी नज़र आती है और कभी कभी ऐसे जकड़ लेती है मुझे कि संस तक लेना दुश्वार हो जाता है। मैं न पूरी तरह आज़ाद हूँ न बंधी हुई। त्रिशंकु सी होती जा रही हूँ। क्या करूँ? आप ही कोई रास्ता दिखाओ।

Saturday, 1 September 2018

मुखरा


अध्याय ५६
हे ईश्वर

कितना बोलती है ये लड़की!! समाजराजनीतिधर्मरीतरिबाज़त्योहारसम सामयिक घटनाएं... कुछ नहीं छोड़ती। हर बात पर एक बात कहती चली जाती है। कितनी कोशिश करते हैं समाज के ठेकेदार इसे चुप करवाने की फिर भी इसका दुस्साहस हर बार एक नई सीमा पार करता नज़र आता है।

सच कहूँ तो पिछले कुछ दिनों में मैं सोशल मीडिया पर कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो गई हूँ। जब भी कोई तस्वीर या लेख पढ़ती हूँ तो उसके नीचे की प्रतिक्रियाओं को पढ़ कर चुप रहा ही नहीं जाता। नतीजतन मेरी सोच की सड़क के दोनों ओर पक्ष और मेरे खिलाफ दोनों तरह के लोगों की झाड़ झंखाड़ उग आई है। बीते 15 दिनों में लोगों ने मुझे गालियां भी बहुत दीं और सराहा भी बहुत। खैर उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने लोगों के बारे में सोचना और उनकी परवाह करना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। फिर भी कुछ तीखी प्रतिक्रियाएँ जब भी मिलती हैं सोचने पर मजबूर कर देती हैं।

मैंने जब आरक्षण के विषय में कुछ बोला तो लोग जातिसूचक गलियाँ और आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करने लगे। मैं कहना चाहती हूँ कि आरक्षण कभी भी आर्थिक आधार पर नहीं दिया गया था। वैसे उस समय तो शूद्र को संपत्ति अर्जित करने का अधिकार भी नहीं था। आज भी कितने ऐसे लोग हैं जो बिना जाति की वैतरणी पार किए रोटी बेटी का संबंध जोड़ सकेंमैं खुद कई बार लोगों की इसी संकुचित सोच का शिकार हो चुकी हूँ। इसलिए जब तक हर एक इंसान को अपने नाम के आगे बिना कुछ जोड़े सिर्फ उसके कर्म के आधार पर पहचान न मिलेतब तक मैं आरक्षण हटाने की वकालत कभी नहीं करूंगी।

फिर आई वुमेन पावर और नारीवादी विचारों पर निशाना साधने की बारी। बहुत से लोग ये नहीं समझते कि नारीवाद का अर्थ सिर्फ पुरुष को गाली देना नहीं है। नारीवाद तो वो परिपक्व सोच है जो औरत और मर्द की बराबरी की बात करती है। वो बराबरी नहीं जो किसी को औरत को सर्व शक्ति सम्पन्न मानने को मजबूर करे बल्कि वो जो ये माने कि कभी कभी मर्द भी कमजोर पड़ सकता हैथक सकता है और चाहे तो अपने लिए आर्थिक सुरक्षा की उम्मीद किसी और से कर सकता है। नारीवाद का अर्थ केवल पानी पी पी कर मर्द को कोसना नहीं होता और न ही जानबूझ कर अपने संस्कारों एवं संस्कृति की अवहेलना करना। पुराने का सम्मान पर नए को स्वीकृति ही परिपक्व सोच का परिचायक है। पर संस्कृति के नाम पर खून की नदियां बहाने वाले क्यूँ समझेंगे!


बहुत दूर जाना है इस समाज को अभी अपने से भिन्न किसी को स्वीकार करने के लिए और अभी तो केवल शुरुआत है। 

Thursday, 23 August 2018

वो मिडिल क्लास का प्यार

अध्याय ५५
हे ईश्वर 

आज जब अचानक से महीने के बीच में मिला बोनस उनसे बांटने लगी तो ख्याल आया 'शायद बहुत वक़्त हो चला है मुझे अपने बारे में ठीक से सोचे हुए।' मुझे तो याद भी नहीं कब आखिरी बार किसी ने मेरे लिए चाय का बिल भरा था या मुझे घूमने ले जाने के लिए टिकट कटा दिए थे। ये भी नहीं याद कि आखिरी बार कब कोई मेरे लिए कुछ लाया था या मेरी कोई फरमाईश पूरी की थी। यहाँ तो मैं ही देखती रहती हूँ उनकी तरफ प्यासी निगाहों से की उनकी कोई इच्छा हो और मुझे पूरा करने का मौका मिले। 

मैंने तो सोचा था कि जो भी मेरा हमसफर होगा वो मेरा हमकदम भी होगा। बराबरी का रिश्ता होगा, बराबर बराबर जिम्मेदारियाँ। पर यहाँ तो हर एक ज़िम्मेदारी मैं ही ढोए जा रही हूँ। सब कहते हैं कि अपनों पर खर्च नहीं करोगी तो पैसों का तुम करोगी क्या? बहुत कुछ! बहुत सी बातें दिमाग में आती हैं इस सवाल पर। वो सारे सपने आँखों में झिलमिलाने लगते हैं जो मैंने अपने लक्ष्य प्राप्ति के बाद के लिए बचा के रखे थे। पर कहाँ सपने, कहाँ मैं। कभी कभी दुधारू गाय जैसी अपनी सोच पर तरस भी आता है। नात रिश्तेदार जैसे वो ग्वाला हों जो मेरे बछड़ों के लिए संचित दूध पर अपना अधिकार जता बेच देते हैं बाज़ार में।

शायद अब मुझे भी अपने संचित धन को गुप्त धन में बदल देना चाहिए। मेरे हर बोनस, हर फेस्टिवल एडवांस और सैलरी इनक्रीमेंट पर गड़ी इन गिद्ध दृष्टियों से नज़र बचा कर कुछ अपने लिए और आड़े वक़्त के लिए रख छोड़ना चाहिए। बुरी से बुरी स्थिति कि कल्पना करके खुद को उसके लिए तैयार कर लेना चाहिए। आजकल जब आपका हक़ मरने के लिए लोग तैयार बैठे हैं, वहाँ आपके लिए अपनी कोई नैतिक ज़िम्मेदारी कोई क्यूँ निभाएगा? तो फिर मैं ही क्यूँ?  

अनसुना कर देती हूँ कुछ दिन के लिए ये चाहिए, वो चाहिए की हर पुकार। सुन ही लेती हूँ मन के किसी कोने में सहमी मेरी ख़्वाहिशों की आवाज़।

वो एक अजीब लड़की


अध्याय ५४
हे ईश्वर

कहते हैं एक बार आपने एक हाथी की करुण पुकार सुन कर मगर के पंजों से उसको छुड़ा लिया था। फिर मैं कौन से ब्रह्मफांस में बार बार अटक जाती हूँ कि न तो मेरी पुकार आप तक पहुँच पा रही है न ही मुझे मेरे इस गिरह से मुक्ति मिलती है। पिछले कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि मेरा इस बार का प्यार भी वक़्त के पंजों में और दुनिया की सख्त निगाहों के तले सहम कर मुरझा गया है। समाज ने उसके साथ भी शायद वही सब किया होगा, वही सब उसे कहा होगा, उंच नीच की समझाईश दी होगी, मेरे निकृष्ट होने की तरफ इशारा किया होगा, चाल चलन पर उँगलियाँ उठाईं होंगी।  कहने का क्या फायदा कि मुझे दर्द हो रहा है। आँसू सूख गए हैं शायद या मैं ही उन्हें पलकों में अटका कर भूल गई इस बार। कैसी लड़की हूँ मैं भगवान? दिल थोड़ा सा दहल रहा है कि कोई अगला इस लाइन में उसकी जगह लेने को न खड़ा हो!

मैं अपना सब कुछ हार कर भी जीता हुआ महसूस करती हूँ। मेरे संघर्ष मुझे बड़े प्यारे हैं भगवान। मेरा स्वार्थ मेरे लिए सब कुछ है। बड़ा घमंड है मुझे कि मैं एक आत्मनिर्भर लड़की हूँ और अपनी आजीविका के लिए खुद प्रयत्न करती हूँ। अपनी ही नहीं अपने अपनों की भी हर ज़रूरत पूरी करती हूँ। वो अपने जो बार बार मेरा हाथ छुड़ा कर चल देते हैं। वो जो मुझे तब याद करते हैं जब उन्हें नए खिलौनों की ज़रूरत पड़ जाती है। सच है पैसे से कभी प्यार नहीं खरीदा जा सकता। न वफादारी का कोई मोल लगाना संभव है। पर मैंने पैसों से कुछ वक़्त खरीदा है। वो वक़्त जो बेहद खूबसूरत था, है और हमेशा रहेगा। इसी प्यारे से वक़्त को फिर से कमाने के लिए मैं रोज़ कोशिशें करती हूँ, मन्नतें मांगा करती हूँ, श्रद्धा से सिर झुकाती हूँ, माथा टेकती हूँ। मुझे पता है आप मुझे वो वक़्त ज़रूर लौटा देंगी। कई बार पूछा मैंने उनसे कि मुझे ले चलें मेरी माता रानी के पास। पर वो न तो मुझे ले जाते हैं, न मुझे जाने देते हैं। अकेले उनकी आज्ञा की उपेक्षा करके जाने का सीधा मतलब होगा कि मैं उनको अपनी जिंदगी से निकाल चुकी हूँ, मान चुकी हूँ मन ही मन कि ये रिश्ता अब नहीं रहा। ऐसा मानने को दिल तो नहीं करता पर देखा जाए तो बचा भी क्या है। वो सधे कदमों से समाज के बनाए सीधे सादे रास्ते पर चले जा रहे हैं। यूं ही चलते चलते किसी अपने समाज की लड़की का हाथ भी थाम ही लेंगे एक दिन।

उस डर से मुक्ति पाने का शायद सब से अच्छा तरीका यही है कि मैं खुद इस प्रेम की जड़ों में अवज्ञा, उपेक्षा और अवमानना का मट्ठा उड़ेल दूँ। मान लेने दूँ उनको कि मैं हूँ ही गिरी हुई लड़की’, पुंश्चली और निर्लज्ज। शायद यही सहज है, यही सरल है और उनके लिए ठीक भी है। तो ईश्वर मेरे, आपको साक्षी मान कर कहती हूँ भले ही मेरे अंचल पर एक भी दाग नहीं है, पर आज के बाद तुम्हारी दुनिया और अपने प्यार के सामने मैला अंचल ही ओढ़ लूँगी।

Thursday, 16 August 2018

मेरा दोष...

अध्याय ५३ 
हे ईश्वर

दो दिन से उनकी आवाज़ नहीं सुनी। देखा तो था उस दिन पर उसके बाद जाने क्या हुआ! वो इतना नाराज़ हो गए कि मुझे छोड़ कर जाने की बातें करने लगे। बेजा इल्जामों के बोझ तले दबा दिया उन्होने मेरा सारा प्यार। अब मेरे ऊपर लगे लेबलों की सूची में 'दिखावपसंद' भी जुड़ जाएगा। बड़ा यकीन है मन को मेरे खुद पर और अपने इस प्यार पर। फिर भी॥किस्मत भी तो कोई चीज़ होती है। वहमी से मन को बार बार ख्याल आ रहा है - उस दिन व्रत के दिन नहीं कहना चाहिए था कि भूख लगी है। पर दुनिया भर के दीन दुखियों की चीख पुकार के बीच क्या भगवान को याद होगा कि मैंने ऐसी कोई बात कही थी? कहाँ मैं जो बच्चों की तरह उनसे फर्माइशें कर रही थी और कहाँ आज का ये दिन कि आवाज़ तक नहीं सुनी मैंने उनकी। 

लगा था भटक जाऊँगी अगर अपना हाथ छुड़ा लिया उसने। पर मैं तो पहले से कहीं ज़्यादा ज़िम्मेदार हो गई हूँ। देखो न कल घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। आराम से लंच छोड़ कर सारा दिन काम किया और खाना खाए बिना ही सो गई। चीख चिल्ला कर घर और ऑफिस सिर पर उठाने वाली मैं - मुंह से एक आवाज़ तक नहीं निकाल रही। बहुत दुख होता है लेकिन सच में। जब आपके अतीत की परतें खोलने वाला ही एक दिन आपका वही अतीत उठा कर आपके मुंह पर मार देता है। ये बात शायद मैं पहले भी कह चुकी हूँ पर सच! लोग बदलते रहते हैं पर उनके झूठे बे बुनियाद इल्ज़ाम वहीं के वहीं। 

'तुम चाहती हो लोग हमारे बारे में वही बातें करें जो तुम्हारे और उसके बारे में उड़ा करती थीं' कटघरे में खड़े होना किसे अच्छा लगता है? वो भी अपने किए हुए जुर्म से जब आप अंजान हो। और मेरा तो अपराध अक्षम्य है ही। मैं लड़की हूँ और वो भी आत्मनिर्भर और अकेली। तीन तीन भयंकर अपराध! उस पर मैं कभी अपने तौर तरीकों के लिए माफी भी नहीं मांगती। न ही ये देखती हूँ कि मेरे ऊपर गड़ी नज़रों में किस कदर हिंसात्मक भाव हैं। लेकिन भगवान एक बात बताइये न...आप मेरी जिंदगी से 'कमज़ोर कड़ी कौन' खेलना कब छोड़ेंगे?  मुझे इस बात का दुख नहीं है कि किसी का साथ छूट गया या छूट जाता है। बस इस बात का दुख है कि उसने पहले क्यूँ नहीं कहा कि वो मुझसे इतनी नफरत करता है।

अब आपके सवाल का जवाब... नहीं, मैं नहीं चाहती कि चार लोग हमारे बारे में बातें करें। मैं बस इतना चाहती हूँ कि आपको मुझसे बात करने में या चार लोगों के सामने ये स्वीकार करने में हिचक न हो। मुझसे जान पहचान किसी के लिए शर्म का कारण बने ऐसा नहीं सोचना चाहती मैं। पर ऐसा होता है और बार बार होता है। इसे सिर्फ ईश्वर ही रोक सकते हैं। इसलिए ईश्वर आप ही अब कृपा कीजिये, प्लीज। 

Tuesday, 14 August 2018

ये कैसा संरक्षण .!

अध्याय ५२ 
हे ईश्वर

संरक्षण गृह का मतलब शायद गलत लिखा है डिक्शनरियों में। मैं तो सोचती थी संरक्षण गृह वो जगह है जहां समाज की सताई हुई बेबस औरतों और बच्चियों को शरण मिलती है। एक ऐसी जगह जहां वो चैन की सांस ले सकें। पर भगवान मुझे नहीं पता था कि इनकी चारदीवारों में न जाने कितने बेबस मासूमों की चीखें दबी हुई हैं। नहीं जानती थी कि रात का अंधेरा इनके लिए हैवानियत का नंगा नाच लेकर आता है। ये लड़कियां भी कैसी बेवकूफ हैं! जहां आज भी लड़की को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता हो वहां उनको ऐसा क्यों लगा कि उनको मुफ्त में ही जीने का अधिकार मिल जाएगा। आजकल तो उम्र पूछने का चलन ही नहीं! दुधमुंही कन्या भी चलती है और पकी उम्र की वृद्ध महिला भी।

पर मैं भी न! ये क्या लेकर बैठ गई। मुझे भी तो वादा किया है किसी ने कि वो मेरा ख्याल रखेगा, मेरा साथ देगा। क्या हुआ उसके वादे का? आज फिर एक बार जब उसने मुझ पर झूठे इल्ज़ाम लगाए, दिल एक बार फिर से धड़कना भूल गया। आँखें फिर से गीली हो गईं और मन एक बार फिर दहल गया। कुछ नया तो नहीं पर अचानक हुआ। मेरी तो आदत ही छूट गई थी ताने सुनने की, इल्ज़ाम झेलने की। अच्छा ही किया उसने जो इतनी बेदर्दी से हाथ छुड़ा लिया अपना। उसके प्यार की आदत सी होती जा रही थी, उसकी परवाह के बिना दिल ही नहीं लगता था। उसके चेहरे से नज़र ही नहीं हटती थी।अच्छा किया उसने जो मेरा विश्वास तोड़ दिया। कुछ ज़्यादा ही यकीन होने लगा था अपने आप पर। कुछ ज़्यादा ही मुस्कराने लगे थे हम। आज जब उसने कहा मुझे कुछ नहीं रखना तो लगा ये तो एक दिन होना ही था मेरे साथ। जो दूसरों से अलग होते हैं वो चोट भी अलग ही किस्म की देते हैं। तब नहीं जब आप सावधान हों पर उस समय जब आप पूरी तरह निश्चिंत हो जाते हैं और उन पर विश्वास करने की गलती कर देते हैं।

एक दिन मैंने उनसे कहा था कि मैं आप पर खुद से ज़्यादा यकीन करती हूं। क्या इसी यकीन के चलते आपने मेरे साथ ऐसा किया? या अचानक से अपने इस निर्णय पर पछताने लगे थे कि मेरे जैसी बिगड़ी हुई लड़की का हाथ थामा आपने। शायद आस पास वालों के ताने असर कर गए। शायद किसी ने फिर से मेरी मदद करने के लिए आपको टोक दिया होगा। या फिर एक बार घरवालों का डर आपको सताने लगा होगा। हो सकता है आपकी नैतिकता ने आपको इस गिरी हुई लड़की से जुड़ने से मना कर दिया हो। कितने सारे सवाल हैं ना। जवाब कोई नहीं।

तमाशे तो चाहे जितने कर सकती हूं पर उससे होगा क्या! तुम सोच चुके हो अपना रास्ता तो मेरी शुभकामना। जाओ अब किसी और बेबस इंसान को प्यार का झूठा यक़ीन दिला देना। ये झूठा दिलासा भी कि वो एक अच्छी लड़की है और जीवन में बहुत कुछ उसे मिलना चाहिए। प्यार भी, भरोसा भी, किसी का साथ भी। जब वो इस बात पर शिद्दत से यक़ीन करने लगे, केवल उस वक़्त ही खींचना उसके पैरों के नीचे से ज़मीन। वरना पूरा मज़ा खराब हो जाएगा।

पता नहीं आने वाला दिन क्या लेकर आएगा। इसी दिन को न देखने के लिए ही तो हमने अपनी ज़िंदगी खत्म करने का ईरादा किया था। पर उनके वादे की तरह मेरा ईरादा भी कच्चा था। शायद इसलिए मिल रही है ये सज़ा मुझे। अच्छा है।

Wednesday, 1 August 2018

उम्र का तकाज़ा या उम्र का बोझ

अध्याय ५१
ये रचना मैंने अपने ब्लॉग के अर्धशतक के लिए रख छोड़ी थी पर उस वक़्त मन भटक गया. खैर ५१ का शगुन ही सही:

आज ब्लॉग की पिच पर मैंने अर्धशतक बनाया है. इसके लिए कोई ख़ास रचना तलाश ही रही थी कि एक सोशल मीडिया पोस्ट पर नज़र पड़ी और मसला खुदबखुद हल हो गया. माधुरी दीक्षित जी की एक आकर्षक तस्वीर के नीचे किसी निहायत ही अहमक शख्स के गुस्ताखी भरे जुमले और उनके जवाबों की एक श्रृंखला पर नज़र पड़ी.






एक खूबसूरत और गरिमामय व्यक्तित्व का सज संवर कर रहना किसी को इतना बुरा लगा! तो मेरे जैसी ३० पार कर चुकी महिलाएं क्या करें? जान बूझ कर अपना व्यक्तित्व बिगाड़ लें या फीके रंगों के कपड़े पहन कर घर के किसी कोने में  खुद को समेट लें? कौन तय करता है ये मानक कि एक निश्चित उम्र के बाद एक स्वतंत्र और आत्मविश्वासी स्त्री को कैसे रहना है? क्यूँ? ऐसा करने वाले के शब्दों को विराम देने की बड़ी कोशिशें की गईं पर सब बेकार. हर बात का उनके पास एक ही अतार्किक, घटिया और ओछा जवाब था.

सोचती हूँ ऐसे ही लोग होते होंगे जो किसी की स्कर्ट की लम्बाई को उसके चरित्र का मानक मानते होंगे. सड़कों पर चल रहे जोड़ों को धमकाते होंगे या किसी अकेली लड़की का सड़क चलना मुश्किल बनाते होंगे. या मेरे जैसी किसी लड़की के पीठ पीछे उसके बारे में अनर्गल प्रलाप किया करते होंगे. पर ऐसे लोगों के लिए शायद चुप्पी कोई जवाब नहीं है. *Troll Police की बड़ी याद आती है मुझे. वो हक्की बक्की शक्लें, लड़खड़ाती जुबान और आँखों में डर देख कर दिल को बहुत सुकून मिलता था.
कितना आसान लगता है उनको एक नकली चेहरे के पीछे छुप कर किसी के बारे में अपमानजनक बातें कहना. कितना मुश्किल था दिन की रोशनी में उसी इन्सान से ऑंखें मिलाना. कुछ तो अपने घमंड में चूर इतरा कर चल भी दिए. कुछ ने गलती का एहसास किया और माफ़ी मांगी.

एक बात पर उन सब में एक जैसी ही थी. वो सारे लोग एक नकली चेहरे के पीछे छुप कर जो चाहे बोलें पर उनके अन्दर उसी बात को सबके सामने कहने की हिम्मत नहीं थी. इसी तरह के लोग हैं जिन्हें हम चाँद दिखाना चाहते हैं और वो हमारी ऊँगली की गलतियाँ निकालने में लगे रहते हैं. चाँद की तरफ तो कोई देखता ही नहीं.

कुछ ऐसी ही कहानी मेरी भी है. मेरा खूबसूरत व्यक्तित्व वो चाँद है जिसकी तरफ मैं सबका ध्यान खींचना चाहती हूँ. चाहती हूँ कि मुझे मेरे चेहरे और कद काठी से ज्यादा लोग मेरे व्यक्तित्व और आत्मविश्वास के लिए पहचानें पर लोग हैं कि मेरी बढती उम्र और मेरे अविवाहित रहने की तरफ देखने में ही लगे रहते हैं. पर फिर भी मुझे पूरा यकीन है कि किताबों और रचनाओं की इस दुनिया में मेरी पहचान मुझे ज़रूर मिलेगी. पढने लिखने वाले वो सुरुचिपूर्ण लोग होते हैं जिनकी नज़र हमेशा माधुरी जी जैसे चाँद की तरफ ही रहती है, उनकी उम्र जैसी नादान सी ऊँगली की तरफ नहीं. 

Tuesday, 31 July 2018

आखिरी बाज़ी


अध्याय ५०

हे ईश्वर

बुराड़ी के एक परिवार की आत्महत्या के बाद बहुत से किस्से सुनने में आ रहे हैं. भूत प्रेत से लेकर कई तरह के अंधविश्वासों में जकड़ी ये एक ऐसी अनसुलझी गुत्थी है जिसका सही सही ब्यौरा शायद कोई दे नहीं पाएगा. क्यूँ करते हैं लोग आत्महत्या? क्या हो जाता है जो एक इन्सान को खुद अपनी जान लेने पर बाध्य कर देता है?

ज्यादातर देखा गया है कि दहेज़ पीड़ित औरतें, किसी हादसे के शिकार लोग या किसी वजह से  अपनों को खोने वाले लोग आत्महत्या कर लेते हैं. अवसादग्रस्त लोग भी अपने आप को ख़त्म करना ही बेहतर समझते हैं. लेकिन मौत का तमाशा बनाने का ये जो चलन है ये उन मौतों से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है. आत्महत्या करने वाले को बचाने का प्रयास करने से ज्यादा लोगों को उनकी तस्वीरें निकलना ज्यादा अहम लगने लगा है.

खैर बात अपनी ही चल रही थी. इधर कुछ दिनों से मुझे भी ये ख्याल बहुत परेशान करते हैं. सोचती हूँ कैसा हो अगर एक दिन मैं अचानक अपनी जान लेने के लिए नदी में कूद पडूं या किसी भारी वाहन के आगे अपनी छोटी सी गाड़ी अड़ा दूँ. कैसा हो अगर किचेन में खाना बनाते हुए आग की लपटों में मैं ही झुलस जाऊं. या दिन रात चलते हुए पंखे को बंद करके उससे फंदा बना कर झूल जाऊं. दवाइयां भी तो हैं- चाहूँ तो क्या नींद की गोलियां कहीं नहीं मिल जाएँगी. या रोज़मर्रा की चीज़ें जैसे व्हाइटनर, सिन्दूर या कीटनाशक. एक दिन तो टीवी में सेब के बीज से ज़हर बनाने का तरीका भी देखा था.

बहुत से रस्ते हैं जो आपको तेज़ी से या धीमे धीमे मौत की तरफ ले जा सकते हैं. अब आप सोच रहे होंगे मैं क्यूँ इतनी परेशान हूँ. अच्छी जिंदगी है, नौकरी है, स्वतंत्रता है. बहुत कुछ है पर फिर भी कुछ कम लगता है. लोगों ने समझाने की बहुत कोशिश की है कि मेरे पास ऐसा बहुत कुछ है और आगे की जिंदगी बेहद अच्छी होगी. अगर माँ पापा को पता चला कि मैं ऐसा कुछ सोच रही हूँ तो लड़कों की तस्वीरों की लाइन लगा देंगे. कहेंगे कि तुम शादी कर लो. पर जिसके पास खुद के लिए ही शक्ति न हो वो किसी और को दे भी क्या सकता है.

तो क्या ये मेरी अंतिम रचना है? क्या इसके बाद फिर कभी इस तरह आप लोगों से मुखातिब नहीं हो सकूंगी? क्या यही है मेरा अंतिम पड़ाव जहाँ से आगे जाने की जगह मुझे यहीं रुक जाना बेहतर लग रहा है? क्या इस रचना और मेरे इस ब्लॉग से जुड़े सभी लोग यही सोचेंगे कि काश उसने थोड़ा और संयम रखा होता. या ये कि मैं कायर हूँ जो ऐसी पलायनवादी सोच रखती हूँ.

किसी गलतफहमी में मत रहिएगा. ऐसा करना कायरता नहीं बल्कि एक किस्म की बहादुरी ही है. मैं जब ऐसा सोचती हूँ तो मुझे मेरे छोटे से कुत्ते का ख्याल आ जाता है. कैसा लगेगा उसे अगर मैं शाम को घर न पहुंचूं. अगर घर का ताला एक निश्चित समय पर न खुले, कोई उसे शाम की खुराक देने वाला न हो. अगर घर पर ऐसा करूँ और वो मुझे उठाने की कोशिश करे और उसे कोई जवाब न मिले? कहते है पशुओं को तो  पहले से ही अंदाज़ा हो जाता है घर में होने वाली मौत का. तो क्या उसे अंदाज़ा है कि मैं एक दिन अचानक उसे अधर में छोड़ कर चली जाऊँगी. मेरे सामान का क्या होगा? शायद औने पौने दाम में बेच दिया जाएगा. मेरी सारी डायरियां जला दी जाएँगी ताकि मेरे किस्से कहानियां बाहर न जाने पायें. सबसे पहले कौन पहुंचेगा? पता नहीं. शायद मोहल्ले वाले..शायद मेरी कामवाली. ज्यादातर सबसे पहले कामवाली को ही पता चलता है. फिर पुलिस आती है. पुलिस अगर आई तो क्या मेरा बेबी उनको अन्दर आने देगा? क्या पुलिस को पता होगा कि दरवाज़ा खुला न छोडें वरना मेरा कुत्ता भाग जाएगा. क्या होगा?

कई बार नाराज़ होकर आज जो मेरा फ़ोन काट दिया करता है, मुझे कुछ हो गया तो क्या वो मेरे फ़ोन का इंतज़ार करेगा? क्या एक बार भी सोचेगा उन सारे दिनों के बारे में जो उसने मेरे साथ बिताए थे. या जिस तरह आज कहता है ‘किसी के मर जाने से जिंदगी नहीं ख़त्म हो जाती’ उसी ज़ज्बे के साथ फिर से अपना जीवन ऐसी शुरू कर देगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं. क्या पुलिस उससे भी कोई सवाल करेगी? या मेरे नोट के कहने से उसको छोड़ देगी. क्या मेरे घरवाले जानना चाहेंगे मेरे मौत के पीछे का कारण. या बदनामी के डर से बंद करवा देंगे जांच पड़ताल. क्या मेरी पोस्टमोर्टेम रिपोर्ट ईमानदार होगी या ‘एक्सीडेंटल डेथ’ का ठप्पा लगा कर दबा दिया जाएगा ये हादसा भी. जिन लोगों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरे इस निर्णय के लिए मुझे बाध्य किया है, क्या वो सब अपनी जिम्मेदारी स्वीकारेंगे या मुझे कमज़ोर कहकर पल्ला झाड़ लेंगे. क्या होगा मेरी गाड़ी का जो मैंने इतने प्यार से खरीदी है. क्या होगा उन सारे लोन का जो मैंने उठा रखे हैं. मेरे पास तो कोई ऐसी जमा पूंजी या संपत्ति भी नहीं जिसे देकर ये लोन चुकाया जा सके.

वो कहता है ‘शादी हो या न हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा.’ पर ‘किस रिश्ते से’ पूछने पर बगलें झाँकने लगता है. उसकी जुबान लड़खड़ा जाती है जब मैं पूछती हूँ कि अपने रीत रिवाज़ और संस्कार ताक पर रखकर क्यूँ इस बिगड़ी हुई लड़की से इतनी नजदीकियां बना लीं उसने. क्या मेरे टूटे हुए रिश्तों से प्रेरणा लेकर? मेरी जिंदगी में जो भी लोग आये वो परले दर्जे के कायर थे. मुझे स्वीकारने की हिम्मत नहीं थी तो मेरा ही आत्मविश्वास ढहा कर चले गए. पर क्या सच में उठ गया है खुद से मेरा विश्वास? क्या सच में नहीं है मेरे जैसे लोगों के लिए इस दुनिया में जगह? क्या सचमुच मैं उन लोगों का दिया इलज़ाम स्वीकारती हूँ? शायद नहीं. इसलिए तो प्यार पर अटल विश्वास है अब भी मुझे और शायद हमेशा रहेगा.

जो लोग आत्महत्या करते हैं वो ऐसे न जाने कितने अनसुलझे सवाल अपने पीछे छोड़ कर चले जाते हैं. पर मैं मरना नहीं चाहती. मैं तो जीना चाहती हूँ, खुलकर. खुश रहना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ. ज़िन्दगी में आते जाते लोगों से बेपरवाह होकर बस अपने आप के साथ प्यार करना चाहती हूँ. आवारा कुत्तों और बेसहारा लोगों का सहारा बनना चाहती हूँ. बहुत सारे पैसे कमाना चाहती हूँ और समाज में सम्मान भी. क्या हुआ जो कोई मेरा साथ नहीं दे सकता. मैं वैसे भी सिर्फ और सिर्फ अपना ही हाथ थाम कर चलती हूँ हमेशा. हमेशा चल सकूंगी, विश्वास है मुझे.

Sunday, 29 July 2018

सावन का सोमवार


अध्याय ४९ 
मेरे ईश्वर

शिव – औघड़ दानी, सन्यासी, भोले बाबा! कितने सारे नाम दिए गए हैं भगवान को.मैंने भी आज व्रत रखा है. मां का कहना है जब तुम्हें शादी ही नहीं करनी तो व्रत क्यों रखा है तुमने ! सही है मां.. शादी के अलावा किसी लड़की की कोई हार्दिक इच्छा हो भी कैसे सकती है!

पर मेरी है...जानती हो क्या? मैं चाहती हूँ मेरा खुद का घर. एक घर जो छोटा सा ही सही पर मेरा हो. ऐसा घर जिसमें मैं कभी भी जाकर रह सकूँ. एक घर जिसमें मैं अपनी हर चीज़ रख सकूँ. ऐसा घर जो मेरी शरण हो. घर जिसमें जब कोई मुझे कहेगा ‘अपने घर चली जाओ’ तो जा सकूँ. मुंह पर मार दूँ लोगों के ये जुमला. ‘अपना घर’.

एक अच्छी और बेहतर ज़िन्दगी मेरा सपना है मां. न सिर्फ अपने लिए बल्कि दुनिया की हर औरत के लिए. मैं बेहद खुशकिस्मत हूँ कि मेरा ये सपना सच हुआ है. मैं जिस घर में रहती हूँ उसका एक एक कोना मेरा है..मेरी किताबें हैं जो हर जगह बिखरी रहती हैं, मेरे ही कपड़े हैं जो दिन भर सहेजे जाते हैं. डायरी, गिटार, कार्ड्स और न जाने क्या क्या. मैं सचमुच बेहद खुशकिस्मत हूँ कि एक शांत और सुरक्षित जीवन है मेरा.

अभी कुछ दिन पहले मैं बेहद अशांत थी. अचानक ही बढ़ते हुए क़र्ज़ से परेशान होकर मैंने अपनी रातों की नींद हराम कर ली थी. पर एक दिन अचानक मैंने सोचा. मैंने अभी तो बस एक ही निर्णय लिया अपने आप. क्या हुआ अगर वो थोड़ा सा गलत था. उससे मेरी जिंदगी ख़त्म तो नहीं हो जाती. मेरा कोई काम रुक तो नहीं जाता. मेरी आर्थिक आज़ादी छिन तो नहीं गई. मेरी उम्र बेहद कम है, एक अच्छी खासी तनख्वाह है, सेहत है. आगे बढ़ने के बहुत से अवसर हैं. ये क़र्ज़ भी कितने दिन मेरा पीछा करेगा. एक न एक दिन तो इसे ख़त्म होना ही है.

ये सारे ख्याल आते ही बुरा वक़्त जैसे एक कोने में सिमट गया. मेरे होंठों पर मुस्कान लौटी, जीने की इच्छा फिर से जगी. मेरे जैसी बहुत सी लड़कियां होंगी, जिन्हें गलती करने के ख्याल सताते होंगे. इस डर से वो जीना भी भूल जाती होंगी. पर मैं नहीं भूल सकती. मैं आज़ाद तो हूँ, बेपरवाह नहीं. मेरी जिंदगी सिर्फ मेरी नहीं. बहुत से लोगों की नज़र है उस पर. मेरी झुकी हुई नज़र दुनिया की हर आज़ाद औरत का सर भी झुका देगी. इसलिए जाओ, मैं हार मानने वाली नहीं.

इसी बीच में आ गया ये सावन का सोमवार. मेरे भोले बाबा का दिन. ईश्वर तो अन्तर्यामी होते हैं, तो अपनी इच्छा मुंह से क्यूँ कहूँ. समझते तो हैं, पूरा भी कर देंगे एक दिन.

उस दिन का इंतजार करूंगी!


अकेले हैं तो क्या गम है

  तुमसे प्यार करना और किसी नट की तरह बांस के बीच बंधी रस्सी पर सधे हुए कदमों से चलना एक ही बात है। जिस तरह नट को पता नहीं होता कब उसके पैर क...